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ॐ गीता दर्शन भाग-20
सर्वाणांन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। | ही समर्पित कर देते हैं। आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।। २७ ।। यह समर्पण प्राणों का समर्पण है। यह समर्पण अपना ही समर्पण और दसरे योगीजन संपर्ण इंद्रियों की चेष्टाओं को तथा | है। क्योंकि हम जिसे अब तक जानते हैं स्वयं का होना, वह हमारी प्राणों के व्यापार को ज्ञान से प्रकाशित हुई परमात्मा में | इंद्रियों के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हम जिसे कहते स्थितिरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। . हैं अपनी अस्मिता, अपना होना, अपना बीइंग, वह हमारी इंद्रियों
के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और जब कोई अपनी
समस्त इंद्रियों को, अपने समस्त जोड़ को परमात्मा को चढ़ा देता, 27 ज्ञानी परमात्मा को भेंट भी करे, तो क्या भेंट करे? | तो पीछे चढ़ाने वाला और जिसको चढ़ाया गया है वह, वे दोनों एक I अज्ञानी न परमात्मा को जानता, न स्वयं को जानता। | ही हो जाते हैं। क्योंकि पीछे परमात्मा ही बचता है। अगर हम अपनी
न उसे उसका पता है, जिसको भेंट करनी है; न उसका | सारी इंद्रियां परमात्मा को चढ़ा दें, तो हमारे भीतर सिवाय परमात्मा पता है, जिसे भेंट करनी है। स्वभावतः, उसे यह भी पता नहीं है कि के फिर और कोई भी नहीं बचता है। क्या भेंट करना है।
इंद्रियों के द्वारा हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियां हमारे उपकरण हैं अज्ञानी जिन चीजों से आसक्त होता है, उन्हीं को परमात्मा को संसार से संयक्त होने के। आंख से हम रूप से जडते हैं. आंख से भेंट भी कर आता है। जो उसे प्रीतिकर लगता है, वही वह परमात्मा | हम प्रकाश से जुड़ते हैं। कान से हम स्वर से, ध्वनि से जुड़ते हैं। के चरणों में भी चढ़ाता है। भोग लगता है प्रीतिकर, भोजन लगता | ऐसे हमारी पांचों इंद्रियों के द्वार से हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियों है प्रीतिकर, तो परमात्मा के द्वार पर चढ़ा आता है। फूल लगते हैं। | से जाएं, तो संसार में पहुंच जाएंगे। इंद्रियों को छोड़कर जाएं, तो प्रीतिकर, तो परमात्मा के चरणों में रख आता है। सोचता है, शायद | | परमात्मा में पहुंच जाएंगे। इंद्रियां द्वार हैं संसार की तरफ। अगर जो उसे प्रीतिकर है, वही परमात्मा को भी प्रीतिकर है। | इंद्रियों से लौट आएं पीछे, तो परमात्मा में पहुंच जाएंगे।
लेकिन अज्ञान में जो प्रीतिकर है, वह ज्ञान में प्रीतिकर नहीं रह | जो सीढ़ी मकान के नीचे लाती है, वही सीढ़ी मकान के ऊपर भी जाता। हमें जो प्रीतिकर है, हमारी स्थिति में जो प्रीतिकर है, उसे ले जाती है। जो रास्ता आपको यहां तक ले आया, वही रास्ता परमात्मा के द्वार पर चढ़ाने योग्य समझने की भूल अज्ञान में ही आपको वापस आपके घर तक भी ले जाएगा। लेकिन यहां आते होती है।
समय और घर लौटते समय, रास्ता भी वही होगा, आप भी वही कृष्ण कहते हैं इस सूत्र में कि ज्ञानीजन, योगीजन, अपनी इंद्रियों होंगे। फर्क क्या पड़ेगा? फर्क इतना ही पड़ेगा, आपका रुख, को ही उस परमात्मा की अग्नि में आहुति दे देते हैं।
आपका चेहरा बदल जाएगा। इधर आते हुए चेहरा इस तरफ होगा, हम जब भी परमात्मा को कुछ भेंट करते हैं, तो इंद्रियों के विषयों | पीठ घर की तरफ होगी; घर जाते समय चेहरा घर की तरफ होगा, में से कुछ भेंट करते हैं। इंद्रियां जो चाहती हैं, उसे हम परमात्मा को पीठ इस तरफ होगी। भेंट करते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन इंद्रियों को ही उसकी अग्नि में | संसार में जाते समय इंद्रियों की तरफ उन्मुख होकर, मुंह करके आहुति दे देते हैं। भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी है। | संसार में जाना पड़ता है। परमात्मा की तरफ, स्वयं की तरफ आते
फूल लगता है प्रीतिकर; नासापुटों को सुगंध लगती है मधुरः | | समय, इंद्रियों की तरफ पीठ कर लेनी पड़ती है और लौटना पड़ता आंखों को रूप लगता है आकर्षक। हम फूल को चढ़ा देते हैं | परमात्मा के चरणों पर। ज्ञानीजन सुगंध की इंद्रिय को ही चढ़ा देते | | इंद्रियां ही द्वार हैं संसार में ले जाने के, इंद्रियां ही द्वार बनती हैं हैं, फल को नहीं। हमें भोजन लगता है प्रीतिकर, स्वाद लगता है। परमात्मा में आने के। इंद्रियां एंटेंस हैं संसार में और एक्जिट हैं मधुर, हम स्वादिष्ट फलों को, मिष्ठानों को परमात्मा के द्वार पर | परमात्मा में। रख देते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन स्वाद को ही-स्वादिष्ट को | । इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन अपनी इंद्रियों को ही उसके नहीं—स्वाद को ही उसकी अग्नि में समर्पित कर देते हैं। इंद्रियों को हवन में, उसके यज्ञ की अग्नि में, उस परमात्मा में समर्पित कर देते ही। जो प्रीतिकर लगता है, वह नहीं; जिसे प्रीतिकर लगता है, उसे हैं। उनका ही होम लगा देते हैं। तब जो पीछे शेष रह जाता है वह,
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