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संन्यास की नई अवधारणा
और जिसे होम दिया है वह, दो नहीं रह जाते । फिर यज्ञ करने वाला, यज्ञ, यज्ञ जिसकी प्रार्थना में किया गया वह, सब एक ही हो जाते हैं। इंद्रियों से छूटते ही व्यक्ति में और समष्टि में कोई भेद नहीं । इंद्रियों से छूटते ही दृश्य विदा हो जाता, अदृश्य से मिलन हो जाता। इंद्रियों के छूटते ही रूप विदा हो जाता, अरूप से मिलन हो जाता। इंद्रियों के छूटते ही आकार खो जाता, निराकार में निमज्जन हो जाता है। इंद्रियां ही हमारे आकार की जन्मदात्री, रूप की निर्माता, संसार की व्यवस्थापक हैं। इंद्रियों के तिरोहित होते ही सब खो जाता है विराट में, निराकार में।
इसलिए ज्ञानीजन इंद्रियों को ही — इंद्रियों के उपभोगों को नहीं, इंद्रियों को ही - जिनसे सब उपभोग किए, उनको ही, परमात्मा को समर्पित कर देते हैं।
यह समर्पण ही समर्पण है, बाकी सब धोखा है। ऐसा त्याग ही त्याग है, बाकी सब त्याग प्रवंचना है। ऐसा अपने को ही खो देने की सामर्थ्य ही समर्पण है। बाकी सब अपने को बचा लेने का उपाय है।
फूल को चढ़ाकर हम कुछ भी तो नहीं चढ़ाते । फूल तो परमात्मा को चढ़े ही हुए हैं। आप तोड़कर सिर्फ उनके प्राणों को नष्ट करते हैं। पौधों पर चढ़े हुए भी फूल परमात्मा की ही गौरव गाथा गाते हैं। आप उनको तोड़कर सिर्फ मार डालते हैं, हत्या करते हैं, और कुछ नहीं करते। और यहां वे विराट परमात्मा को समर्पित थे ही, आप तोड़कर अपने घर में हाथ से बनाए हुए, होममेड परमात्मा पर जाकर उनको चढ़ाते हैं !
नहीं, इससे कुछ न होगा। और परमात्मा के सामने मिठाइयों के थाल रखने से कुछ न होगा। क्योंकि सभी कुछ उसके सामने सदा रखा ही हुआ है। सभी कुछ उसकी मौजूदगी में सदा है। सारा विश्व ही उसके सामने है। आपकी थाली बहुत अर्थ न लाएगी।
चढ़ाना ही हो, तो चढ़ाने की चीज स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हमारे पास अपने अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं है। इसे गणित समझें। इसे गणित समझें कि मौत के समय आपसे जो छीना जाएगा, वही यज्ञ में चढ़ाया जाए, तो ही यज्ञ पूरा होता है । मौत के समय जो आपसे छीना जाएगा, अगर आप उसी को स्वेच्छा से समर्पित करते हैं, तो ही परमात्मा के चरणों तक आपकी पुकार और प्रार्थना पहुंच पाती है। मृत्यु में जो जबर्दस्ती घटित होगा, साधक, भक्त, योगी, उसे सहज अपनी ही ओर से परमात्मा के चरणों में रख देता है।
इसलिए फिर उसकी मृत्यु नहीं आती, क्योंकि उसके पास छीने
| जाने को भी कुछ नहीं बचता। इंद्रियां उसने दे दीं, जो छिन सकती थीं। और शरीर इंद्रियों का जोड़ है; शरीर भी दे दिया उसने, जो छिन सकता था । और अहंकार सारे इंद्रियों के अनुभव का संघट है। इंद्रियों के साथ वह भी गया।
इंद्रियों के साथ ही सब कुछ चला जाता है, जो मौत में छीना | जाता है। जो साधारणजन मौत में छोड़ते हैं, छुड़ाया जाता है, वह असाधारणजन स्वयं ही परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देते हैं। यही है यज्ञ, यही है हवन, यही है होम । इसके अतिरिक्त सब धोखे हैं।
धोखे देने में हम कुशल हैं। दूसरों को, अपने को, परमात्मा को भी हम धोखा देने से बचते नहीं ।
अनेक-अनेक प्रकार के हम धोखे अपने आस-पास खड़े कर लेते हैं। और धर्म के नाम पर हमने हजार धोखे खड़े कर लिए हैं। | इस सूत्र को पढ़ते रहेंगे हम रोज, और फिर भी सूत्र को पढ़कर हम फूल ही चढ़ाते रहेंगे। इस सूत्र को पढ़ते रहेंगे रोज, फिर भी मिठाइयां चढ़ाते रहेंगे। इस सूत्र को पढ़ते रहेंगे रोज, लेकिन इंद्रियां हम से न चढ़ाई जाएंगी। स्वाद नहीं, सुवास का उपकरण नहीं; हम अपने को बचाकर और सब चढ़ाते रहे हैं। शायद, अपने को बचाने के लिए ही हम कुछ और चढ़ा रहे हैं। हमने परमात्मा को कोई बच्चा समझा है, जिसे हम खिलौने पकड़ा देते हैं। इन खिलौनों से नहीं हो सकता है कुछ |
कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा कर पाता है, वही परम सत्य को, परम आनंद को, परम आशीष को उपलब्ध होता है।
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प्रश्न ः भगवान श्री, श्लोक के दूसरे हिस्से में कहा गया है, ज्ञान से प्रकाशित हुई परमात्मा में स्थितिरूप योगाग्नि में हवन ! इसमें योगाग्नि का अर्थ स्पष्ट करने की कृपा करें।
सा मैंने कहा, इंद्रियों के भोग चढ़ाने से कुछ भी न होगा; ऐसे ही बाहर जो अग्नि जलती है, उसमें चढ़ाने से भी कुछ न होगा। बाहर की अग्नि में चढ़ाना हो, तो इंद्रियां चढ़ाई भी कैसे जा सकती हैं ? बाहर की अग्नि में तो | इंद्रियों के विषय ही चढ़ाए जा सकते हैं, इंद्रियां नहीं चढ़ाई जा