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गीता दर्शन भाग-2100
हो जाता है। दुष्टों के विनाश का अर्थ यह नहीं कि तलवार से दो टुकड़े कर देंगे। क्योंकि तलवार से दो टुकड़े करने में दुष्ट का तो कुछ विनाश न होगा, जिसने विनाश किया वह भी दुष्ट हो जाएगा। दुष्ट के विनाश का क्या अर्थ है ? दुष्ट के विनाश का अर्थ है, दुष्ट की दुष्टता खो जाए। दुष्टता मिट जाए, तो ही दुष्ट का विनाश हुआ।
साधुओं के उद्धार के लिए यह और कठिन बात है। साधु का तो अर्थ ही यही है कि जिसके उद्धार की किसी को जरूरत न हो। साधु अगर अपना उद्धार न कर सके, तो साधु कैसा? दुष्ट न कर सके, समझ में आता है। कृष्ण कहें कि दुष्टों के उद्धार के लिए, चलेगा। लेकिन 'कृष्ण कहते हैं, दुष्टों के विनाश के लिए और साधुओं के उद्धार के लिए। तो साधारणतः हम सोचते हैं, शायद साधुओं को दुष्ट सताते होंगे, तो उनके उद्धार के लिए।
साधु बड़ा कमजोर है, अगर दुष्ट उसे सता पाए। असल में दुष्ट अगर साधु को सताए, तो दुष्ट को ही बदलना पड़ता है; साधु को नहीं बदलना पड़ता। दुष्ट साधु को सताकर अपनी ही बदलाहट के उपाय में लग रहा है। साधु को नहीं सता पाता ।
साधु को दुनिया में कोई भी नहीं सता पाता। और अगर साधु को दुष्ट सता पाते हैं, तो साधु के नाम से दूसरे ढंग के दुष्ट ही बैठे होंगे, अन्यथा नहीं। साधु नहीं होंगे। साधु को सताने का उपाय नहीं है। इसलिए भी उपाय नहीं है कि साधु का मतलब ही यही है कि जिसे अब सताओ और चाहे सम्मान करो, दोनों बराबर हो गए। उसे सताओगे कैसे? उसे जूते की माला पहना दो कि फूल की माला पहना दो, वह दोनों के लिए धन्यवाद देकर अपने रास्ते पर चल पड़ेगा। साधु को सताने का उपाय नहीं है। जिसे हम नहीं सता
फिर यह कृष्ण कहते हैं, साधु के उद्धार के लिए ! और यह भी बड़े मजे की बात है कि जिस युग में साधु हों, उसमें भी दुष्टों को साधु न सुधार पाएं और कृष्ण को आना पड़े, तो साधु बिलकुल नपुंसक हैं, इम्पोटेंट हैं। फिर साधु किसलिए हैं ?
नहीं; जिस युग में दुष्ट होते हैं, उस युग में साधु भी साधु नहीं होते। असल में दुष्टता से भरे हुए युग दुष्टों के युग होते हैं और पाखंडी साधुओं के युग होते हैं। साधु के उद्धार के लिए अर्थात पाखंड से उद्धार के लिए।
और मजा यह है कि दुष्ट का विनाश करना पड़ता है। क्योंकि दुष्टता कुछ है, जिसका विनाश किया जा सके। पाखंड नहीं, जिसका विनाश किया जा सके। पाखंड से सिर्फ उद्धार किया
है
कुछ
जा सकता है। दुष्टता का विनाश किया जा सकता है। दुष्टता का पाजिटिव अर्थ है । पाखंड सिर्फ एक चेहरा है, जिससे उद्धार किया जा सकता है। जिसे उतारकर रख दिया नीचे, तो पीछे का आदमी प्रकट हो जाता है।
साधु के उद्धार के लिए और दुष्ट के विनाश के लिए ! और जिस युग में साधु नहीं होते, उस युग में दुष्ट होते हैं। लेकिन साधु सदा होते हैं, तो फिर साधु पाखंडी होते हैं।
पाखंडी साधु के उद्धार के लिए ! अन्यथा साधु अगर सच में है, तो कृष्ण से कहेगा, क्षमा करें। आप कष्ट न करें, मैं उद्धार | कर लूंगा। अपना उद्धार तो कर ही लूंगा। आपको नाहक कष्ट न दूंगा। आप क्यों परेशान होते हैं।
अगर साधु सच में साधु होगा, तो दुष्ट उसे दुश्मन नहीं मालूम पड़ेगा। दुष्ट उसे सताता हुआ भी मालूम नहीं पड़ेगा। लेकिन साधु | के भीतर भी दुष्ट ही छिपा रहता है । फर्क, साधु और दुष्ट के बीच, | चेहरों का होता है। और इस अर्थ में दुष्ट कहीं ज्यादा ईमानदार, और साधु कहीं ज्यादा बेईमान होता है।
बेईमानी से उद्धार करना पड़े। धर्म का जब विनाश होता है, तो साधु कहां? क्योंकि अगर साधु होंगे, तो धर्म का विनाश कैसे | होगा? धर्म का विनाश तभी होता है, जब साधु नहीं होते। जब साधु नहीं होते, तभी धर्म का विनाश होता है। और जब धर्म का विनाश होता है, तभी अधर्म प्रभावी होता है।
मैं
एक सभा में था। एक बड़े साधु करपात्री जी बोले। बोलने के | बाद उन्होंने जनता से कुछ नारे लगवाए। उन्होंने पहला नारा लगवाया, धर्म की जय हो । तीन बार लोग चिल्लाए, धर्म की जय | हो । फिर पीछे उन्होंने नारा लगवाया, अधर्म का नाश हो
के साथ बैठे साधु से कहा, जब धर्म की जय हो गई, तो अधर्म बचेगा कैसे ? धर्म की जय हो गई, अधर्म का नाश हो गया। यह तो ऐसे ही हुआ कि लोगों से हम कहें कि दीए जलाओ, और फिर कहें, अंधेरा हटाओ। दोनों बातें बेमानी हैं। दीया जल गया, तो बात खतम हो गई। जब धर्म की जय हो गई तीन बार, अब कृपा | करके अधर्म का नाश मत करवाएं। अधर्म नाश हो गया। और | अगर धर्म की जय से नाश नहीं हुआ, तो अधर्म के नाश के नारे लगाने से नाश होने वाला नहीं है।
धर्म नहीं होता, क्योंकि धर्म के लिए भी पृथ्वी पर पैर रखने की | जगह चाहिए। धर्म को भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। | वह जगह साधुओं के हृदय हैं। अगर साधु न हों, तो धर्म को पैर
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