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गीता दर्शन भाग-20
चला जाता है। पत्ते की कोई आवाज नहीं, पत्ते की कोई पूछ नहीं। | अगर, तो भीतर कर्ता को न बचा सकेंगे। वह गिर जाएगा। भीतर पत्ता कहे कि मुझे पूरब जाना है; कोई सुनता ही नहीं। पत्ता पश्चिम कर्ता को विदा कर दें, तो बाहर कर्म को न बचा सकेंगे; वह खो चला जाता है! पत्ता कहे, मुझे जमीन पर विश्राम करना है, हवाएं | जाएगा। कर्म-संन्यास की जो बहिर्व्याख्या है, वह कर्म-त्याग है। उसे आकाश में उठा देती हैं। तो नियति की एक धारणा है. वह हिंदू कर्म-संन्यास की जो अंतर्व्याख्या है, वह कर्ता-त्याग है। विचार की बहुत गहरी धारणा है।
बुद्ध ने शून्य का प्रयोग किया, हिंदू विचार ने नियति का प्रयोग किया। और कहा कि सब नियंता के हाथ में है। पता नहीं कौन प्रश्नः भगवान श्री, इसी संबंध में एक बात और. स्पष्ट
अज्ञात, कोई अननोन शक्ति भेज देती है, वही बुला लेती है। जब कर लेने को है। कृष्ण कर्म-संन्यास अर्थात कर्मों में हम कुछ हैं ही नहीं, तो हम नाहक क्यों इतराए हुए घूमें? क्यों | कर्तापन के त्याग को अर्जुन के लिए कठिन बता रहे परेशान हों? परमात्मा है, उसके हाथ में छोड़ देते हैं। तब कर्ता शून्य हैं। तथा निष्काम कर्मयोग को सरल बता रहे हैं। हो जाता है। जब हम कुछ करने वाले नहीं, तो जो उसकी मर्जी है, कृपया स्पष्ट करें कि कर्मों में कर्तापन के त्याग के वह करा लेता है। नहीं मर्जी है, नहीं कराता है। ऐसा जो अपने को बिना निष्काम कर्म कैसे संभव होता है? छोड़ दे पूरी तरह समर्पण में, तो भी कर्ता खो जाता है।
तीसरा एक रास्ता और है। और वह तीसरा रास्ता है, उसको जान लेने का, जो हमारे भीतर है। कृष्ण का वही रास्ता है, उसको जान कष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि यह जो उन्होंने लेने का, जो हमारे भीतर है। महावीर का भी वही रास्ता है। yा कर्म-संन्यास की बात कही है, यह कठिन है। और
निरंतर कहे चले जाते हैं, मैं, मैं, मैं। बिना इसकी फिक्र किए कि ८ निष्काम कर्म की जो दूसरी पद्धति कही है, वह सरल यह मैं कौन है ? क्या है? इसका हम कोई पता नहीं लगाते। भीतर | | है। निष्काम कर्म की पद्धति में कर्म भी नहीं छोड़ना पड़ता, कर्ता प्रवेश करें। इसके पहले कि मैं कहें, ठीक से जान तो लें, यह मैं | भी नहीं छोड़ना पड़ता। न कर्म के त्याग का सवाल है, न कर्ता के किसको कह रहे हैं। जितने भीतर जाते हैं, उतना ही मैं खोता जाता त्याग का सवाल है। प्राथमिक शर्त नहीं है वह। निष्काम कर्मयोग' है-जितने भीतर। जितने ऊपर आते हैं, उतना मैं होता है। जितने में सिर्फ कर्म के फल को छोड़ना पड़ता है—सिर्फ कर्म के फल भीतर जाते हैं, उतना मैं खोता जाता है। एक घड़ी आती है कि आप को। यद्यपि कर्म का फल जिस दिन छुट जाता है, उस दिन कर्ता तो होते हैं और मैं बिलकुल नहीं होता। एक ऐसा बिंदु आ जाता है छूट जाता है। लेकिन वह परिणाम है। भीतर, जो बिलकुल ईगोलेस, बिलकुल मैं शून्य है; जहां मैं की | कर्म-संन्यास में जो पद्धति सीढ़ियां बनाती है, निष्काम कर्मयोग कोई आवाज ही नहीं उठती।
में वह पद्धति परिणाम में आती है। फल छोड़ दो! फल छूटा, तो उसको जान लें, तो कर्ता खो जाता है। क्योंकि उसको जान लेने | कर्ता नहीं बचता है। और जब कर्ता न बचे, तो कर्म अभिनय रह के बाद मैं का भाव नहीं उठता; और मैं का भाव न उठे, तो कर्ता जाता है, खेल। दसरों के लिए. अपने लिए नहीं। अपने लिए निर्मित नहीं होता। कर्ता के निर्माण के लिए मैं का भाव अनिवार्य | | समाप्त हुआ। है। मैं की ईंट के बिना कर्ता का भाव निर्मित नहीं होता। ठीक ऐसे ही, जैसे पिता अपने बच्चे के साथ खेल रहा है।
ये तीनों एक अर्थ में एक ही बात हैं। चाहे जान लें कि मैं कुछ उसकी गुड़िया को सजा रहा है, उसके गुड्डे को तैयार करवा रहा है। भी नहीं है, तो भी कर्ता गिर जाता है। जान लें कि परमात्मा सब | बारात निकलवा रहा है। उसके लिए खेल है अब। बच्चे के लिए कुछ है, तो भी कर्ता गिर जाता है। जान लें कि मैं ऐसी जगह हं, | खेल नहीं है। खेल में सम्मिलित है, सम्मिलित होने से बिलकुल जहां मैं है ही नहीं, तो भी कर्ता गिर जाता है। तीनों स्थितियों से कर्ता | सम्मिलित नहीं है। सम्मिलित है पूरा, पर कहीं भी इनवाल्व्ड, कहीं शून्य हो जाता है। भीतर कर्ता शून्य होता है, बाहर कर्म गिर जाते भी डूबा हुआ नहीं है। मौज से खेल रहा है। बच्चा तो बहुत उद्विग्न हैं। वह उसका ही दूसरा हिस्सा है।
| और परेशान रहेगा कि पता नहीं गुड्डा ठीक बनता है कि नहीं! कोई दोनों तरफ से चल सकते हैं। बाहर कर्म को छोड़ दें पूरी तरह वधू राजी होती है कि नहीं। पता नहीं शादी निपट पाएगी ठीक से
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