________________
ॐ वासना अशुद्धि है ®
इसलिए कृष्ण जो कह रहे हैं कि जहां कर्तृत्व खो गया, जहां कर्ता नहीं है! बहुत गहरी खदान है। खोदने में ज्यादा पैसा खराब होगा, खो गया! यह अंतर्व्याख्या है। भीतर से साधक को जानना पड़ेगा निकलेगा कुछ खास नहीं। इसीलिए तो जला देते हैं या गाड़ देते हैं। कि मेरा जो करने वाला था, वह अब नहीं रहा। अब कोई करने आदमी के शरीर का अब तक कोई उपयोग नहीं है। वाला भीतर नहीं है।
तो बुद्ध कहते हैं कि खोजो कि तुम क्या-क्या हो? कुछ कब खोता है करने वाला? इसके लिए भी दो-तीन सूत्र खयाल | थोड़ी-सी चीजों का जोड़ हो। सांस चल रही है इस धौंकनी में। में लेंगे, तो उपयोगी होंगे। साधक की दृष्टि से बड़ी कीमत के हैं। बस, यही हो? कहोगे कि थोड़े विचार भी हैं मेरे पास। माना। __या तो कर्ता तब खोता है, जब आप समझें कि मैं शून्यवत हूं; विचार भी क्या हैं? हवा में बने हुए खिलौने। पानी पर खींची गई हूं ही नहीं। समझें कि मैं क्या हूं? कुछ भी तो नहीं; मिट्टी का एक | रेखाएं। बहुत इम्मैटीरियल। क्या मतलब है! और एक आदमी की ढेर। कभी आंख बंद करके देखें, तो क्या पता चलता है? क्या गर्दन काट कर खोजो, तो विचार कहीं भी नहीं मिलते। हवा के हूं? सांस की धड़कन? क्या हूं? जैसे कि लोहार की धौंकनी | झोंके की तरह हैं। हवा के झोंके में पत्ते हिलते रहते हैं, जिंदगी के चलती हो। कभी सांस को चलने दें, आंख बंद कर लें। और धक्के में विचार हिलते रहते हैं। किसी ने गाली दी, धक्का आया भीतर खोजें कि मैं कौन हूं!
भीतर, थोड़े विचार हिलने लगे। गाली उठने लगी। किसी ने प्रशंसा क्या पता चलेगा? बस इतना ही पता चलेगा कि धौंकनी चल की, गले में माला डाल दी, भीतर हवा का धक्का पहुंचा। बड़े रही है। लोहार की धौंकनी ऊपर-नीचे हो रही है। श्वास भीतर आ | प्रसन्न हो गए; छाती फूल गई; सांस जरा जोर से चलने लगी। रही है, बाहर जा रही है। अगर पूरे शांत होकर देखेंगे, तो सिवाय तो बुद्ध कहते हैं, जरा ठीक से देख लो कि तुम्हारा पूरा जोड़ क्या श्वास के चलने के कुछ भी पता नहीं चलेगा। क्या श्वास का है। इसी जोड़ पर इतने अकड़े हुए हो? तो बुद्ध कहते ६. संघात चलना भर इतनी बड़ी बात है कि मैं कहं कि मैं हं। और फिर श्वास हो, सिर्फ एक जोड़ हो। नाहक परेशान मत होओ। शुन्य समझो भी मैं तो नहीं चला रहा हूं! जब तक चलती है, चलती है; जब नहीं | अपने को। जो इस जोड़ को ठीक से समझ ले, वह शून्यवत हो चलती है, तो नहीं चलती है। जिस दिन नहीं चलेगी, मैं चला नहीं | जाएगा। शून्यवत हो जाए, तो कर्ता खो जाता है। सकूँगा। एक श्वास भी नहीं ले सकूँगा, जिस दिन नहीं चलेगी। एक और रास्ता है। वह रास्ता यह है कि न मैं पैदा हुआ; न मैं श्वास ही चल रही है; वह भी मैं नहीं चला रहा। पता नहीं कौन | मरूंगा अपने हाथ से, न अपने हाथ से पैदा हुआ। जन्मते वक्त अज्ञात शक्ति चला रही है! बस, इतना-सा खेल है। इस इतने से कोई मुझसे पूछता नहीं कि जन्मना चाहते हो? मरते वक्त कोई खेल को इतनी अकड़ से क्यों ले रहा हूं?
मुझसे दस्तखत नहीं करवाता कि अब आपके इरादे जाने के हैं? तो एक मार्ग तो है कि मैं खोजूं कि मैं हूं क्या! तो पता चले कि मुझसे कोई पूछता ही नहीं। मैं बिलकुल गैर-जरूरी हूं। जिंदगी मेरी, कुछ भी नहीं हूं।
कहता हूं कि जिंदगी मेरी। और मुझसे बिना पूछे भेज दिया जाता बुद्ध का यह मार्ग है। बुद्ध कहते हैं, खोजो, तुम क्या हो! हूं! कहता हूं, जिंदगी मेरी। और मुझसे बिना पूछे विदा कर दिया क्या-क्या हो, खोज लो। थोड़ी-सी मिट्टी है, थोड़ा-सा पानी है, जाता हूं! कोई मुझसे इसके लिए भी नहीं पूछता कि आप जाना थोड़ी-सी आग है, थोड़ी-सी हवा है।
चाहते हैं, आना चाहते हैं, क्या इरादे हैं? नहीं, मेरी कोई पूछताछ वैज्ञानिक से पूछे, तो वह कहता है, कोई चार और पांच रुपए ही नहीं है। के बीच का सामान है। थोड़ा एल्युमिनियम भी है, थोड़ा तांबा भी तो एक दूसरा मार्ग है, जो है नियति का, डेस्टिनी का। उस मार्ग है, थोड़ा लोहा भी है। मुश्किल से चार-पांच रुपए के बीच; से ही भाग्य की बहुत गहरी धारणा पैदा हुई। हमने तो उसके बहुत चार-पांच इसलिए कि दाम घटते-बढ़ते रहते हैं! बाकी इससे दुरुपयोग किए, लेकिन वह धारणा बड़ी गहरी है। वह यह कहती ज्यादा का सामान नहीं है आदमी के पास। हालांकि मर जाए, तो | है कि मैं हूं ही नहीं, भाग्य है। न मालूम कौन मुझे पैदा कर देता, न इतना पैसा भी मिल नहीं सकता। पांच रुपए में भी कोई खरीदने को | | मालूम कौन मुझे चलाता, न मालूम कौन मुझे विदा कर देता। मैं राजी नहीं होगा। क्योंकि वह सामान भी इतना उलझा हआ है कि कुछ भी नहीं है। उसको निकालने में बहुत रुपए लग जाएं। वह पांच रुपए के लायक | एक सूखा पत्ता हवाओं में उड़ता हुआ। हवाएं जहां ले जाती हैं,
|321]