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गीता दर्शन भाग-2
कहीं कोई आवाज भी नहीं होती कि पत्ता गिर गया। न वृक्ष को पता चलता, न पत्ते को पता चलता । कहीं कोई घाव नहीं छूटता । चुपचाप !
कृष्ण कहते हैं, सुखद ढंग से बंधन के बाहर हो जाने की राह मैं कह रहा हूं महाबाहो ! तू कर्म कर और द्वंद्व, राग और द्वेष से दूर खड़े होकर कर्म में लग जा। एक दिन तू पके पत्ते की तरह चुपचाप बाहर हो जाएगा।
कच्चे पत्ते की तरह भी बाहर हुआ जा सकता है। संघर्ष से, समर्पण से नहीं। संकल्प से, समर्पण से नहीं। लड़कर, जूझकर, चुपचाप विसर्जित होकर नहीं। कोई लड़ भी सकता है। ध्यान रहे, राग और द्वेष से भी अगर कोई लड़ने में लग जाए, तो वह फिर द्वेष काही नया रूप है।
इसलिए कृष्ण कह रहे हैं कि राग-द्वेष को समझकर !
जो यह देख लेता है कि राग भी दुख है, द्वेष भी दुख है। जो यह देख लेता है, राग भी पीड़ा में ले जाता, द्वेष भी पीड़ा में ले जाता । जो यह देख लेता है कि राग और द्वेष से कभी कोई आनंद फलित नहीं होता; कभी जीवन में उत्सव की घड़ी नहीं आती; नर्क ही निर्मित होता है। चाहते तो हैं कि बना लें स्वर्ग; जब बन जाता है, तो पाते हैं कि बन गया नर्क। चाहते तो हैं कि बना लें मंदिर; जब बन जाता है, तो पाते हैं कि अपने ही हाथ कारागृह निर्मित हो गया। ऐसा जो समझकर, ऐसी प्रज्ञा से ऐसे बोध से जो दोनों के बाहर हो जाता है, वह बड़े सुखद मार्ग से सूखे पत्ते की तरह — बंधन के बाहर गिर जाता है । कहीं कोई पता भी नहीं चलता है। संन्यास तो वही अर्थपूर्ण है, जो इतना संगीतपूर्ण हो। इतना सा भी विसंगीत पैदा नहीं होना चाहिए। जरा-सी भी चोट कहीं पैदा नहीं होनी चाहिए।
कर्म छोड़कर जो जाएगा, उससे तो चोट पैदा होगी। एक आदमी घर छोड़कर जाएगा। पत्नी रोएगी। आंसू पीछे होंगे ही। क्योंकि किसी की अपेक्षाएं टूटेंगी। बच्चे पीड़ित होंगे; अनाथ हो जाएंगे। कहीं किसी की छाती पर पत्थर गिरेगा ही। कहीं कुछ उजड़ जाएगा।
और ऐसा आदमी, जो सब छोड़कर जा रहा है, बहुत गहरे में स्वार्थी नहीं मालूम पड़ता? अपनी मुक्ति के लिए वह अपने चारों तरफ एक मरघट बनाकर जा रहा है। चीजें टूटेंगी; चारों तरफ दुख निर्मित होगा।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, निष्काम कर्मयोग !
पत्नी को छोड़कर कहीं जाना नहीं। चुपचाप भीतर ही पत्नी
प्रति राग और द्वेष छोड़ देना । पत्नी को भी पता नहीं चलेगा।
बड़े मजे की बात है। अगर चुपचाप भीतर से ही राग-द्वेष छोड़ | दिया जाए, किसी को कहीं पता नहीं चलेगा सिवाय आपके । और अगर किसी को पता भी चलेगा, तो सुखद पता चलेगा। क्योंकि हम राग करके भी किसी को सुख नहीं दे पाते, सिर्फ दुख देते हैं। और द्वेष करके तो दुख देते ही हैं।
जैसे ही भीतर राग-द्वेष गिर जाता है, हम हलके हो जाते हैं। | आनंदपूर्ण हो जाते हैं। संबंध सहज र सरल हो जाते हैं। हमारे भीतर से पत्नी मिट जाती है। दूसरी तरफ भी परमात्मा हो जाता है। पति मिट जाता है, परमात्मा हो जाता है। बेटा मिट जाता है, | परमात्मा हो जाता है। फिर भी उस बेटे को स्कूल में भेज आते हैं। उसके भोजन का इंतजाम कर देते हैं। लेकिन अब यह इंतजाम परमात्मा के लिए है। बेटे को कभी पता नहीं चलेगा। बल्कि बेटा तो आनंदित होगा, क्योंकि जिसके पिता के मन में बेटे के लिए परमात्मा का भाव आ गया हो, उसके बेटे को दुख का कोई भी कारण नहीं है। आनंद ही आनंद का कारण है। कृष्ण कहते हैं, से, चुपचाप, . अत्यंत शांतिपूर्ण मार्ग से | निष्काम कर्मयोगी बंधन के बाहर हो जाता है। कोई जल्दी नहीं करता तोड़ने की, चुपचाप चीजों से सरक जाता है।
और जो तोड़कर सरकता है, वह बहुत कुशल नहीं है। जो तोड़कर हटता है, वह बहुत कलात्मक नहीं है। जो तोड़कर हटता है, उसे संगीत का बहुत बोध नहीं है। उसे सौंदर्य का बहुत बोध नहीं है। उसे मानवीय जीवन की गरिमा का बहुत स्पष्ट खयाल नहीं है। वह अपने | ही लिए जी रहा है। धन कमाता था, तो अपने लिए; धर्म कमा रहा है, तो अपने लिए। लेकिन चारों तरफ और भी परमात्माओं के दीए | जल रहे हैं, वे बुझ जाएं, इसकी उसे चिंता नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्म को करते हुए कोई भी | व्यक्ति सुख से, कहीं भी दुख का कोई स्पंदन खड़ा किए बिना, बाहर हो जाता है।
राग-द्वेष के अतीत होते ही ऊर्जा - अनमोटिवेटेड - सक्रिय हो जाती है। निश्चित ही, जो ऊर्जा बिना किसी लक्ष्य के, बिना किसी अंत के सक्रिय होगी, वह ऊर्जा अधर्म के लिए सक्रिय नहीं हो सकती। उस ऊर्जा की सक्रियता अनिवार्यरूपेण धर्म के लिए, | मंगल के लिए, श्रेयस के लिए होगी। ऐसे व्यक्ति का सारा जीवन धर्म-कृत्य, धार्मिक कृत्य बन जाता है।
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