________________
निष्काम कर्म
नहीं है। गंगा के भीतर पानी है, तो वह सागर पहुंचेगा ही। आदमी को छोड़ दें, तो सारा जगत कर्म में लीन है, लेकिन कर्म राग-द्वेष रहित है। आदमी का क्या पागलपन है कि आदमी इस सारे जगत में बिना राग-द्वेष के कर्म में लीन न हो सके ? आदमी भी हो सकता है।
पहली बात यह समझ लेनी जरूरी है कि कर्म का जन्म राग-द्वेष से नहीं होता; कर्म का जन्म भीतर की ऊर्जा से होता है। ऊर्जा कर्म है। लेकिन अब यह ऊर्जा जो कर्म बनती है, आप चाहें तो इसको किसी भी खूंटी पर टांग सकते हैं। मेरे पास कोट है, मैं किसी भी खूंटी पर टांग सकता हूं। किसी खूंटी के कारण मेरे पास कोट नहीं है, खयाल । खूंटी के कारण मेरे पास कोट नहीं है, कोट मेरे पास है; अब मैं किसी भी खूंटी पर टांग सकता हूं। राग की खूंटी पर टांग दूं, द्वेष की खूंटी पर टांग दूं। मेरे भीतर ऊर्जा है।
जीवन ऊर्जा है। लाइफ इज़ एनर्जी और तो कुछ जीवन है नहीं; ऊर्जा है। नाचती हुई शक्ति है। अनंत शक्ति का नृत्य है भीतर ।
और अभी तो विज्ञान ने छोटे-से परमाणु में अनंत ऊर्जा को खोजकर बता दिया। जब हम पहले कभी यह कहते रहे कि एक - एक आदमी के भीतर परमात्मा की अनंत शक्ति भरी है, तो हंसी की बात मालूम पड़ती थी। लेकिन अब तो एक-एक परमाणु
भीतर अनंत शक्ति भरी है, तो एक-एक आदमी के भीतर क्यों भरी हुई नहीं हो सकती ! और अगर मिट्टी के कण के भीतर, मृत कण के भीतर इतनी शक्ति है, तो मनुष्य के जीवित कोष्ठ, जीवित सेल के भीतर उससे अनंत गुनी हो सकती है।
अभी पश्चिम का विज्ञान एटम को तोड़ पाया है, कल सेल को भी तोड़ लेगा। जिस दिन जेनेटिक सेल तोड़ी जा सकेगी, उस दिन हम पाएंगे कि वह जो पूरब सदा से कहता रहा था कि छोटे-से पिंड में ब्रह्मांड है, उस नतीजे पर विज्ञान आज नहीं कल पहुंच जाएगा।
एक-एक व्यक्ति अनंत ऊर्जा से भरा हुआ है। इस ऊर्जा से कर्म पैदा होता है। यह पहली बात समझ लें। इस कर्म को हम चाहें, तो राग पर टांग सकते हैं, चाहें तो द्वेष पर टांग सकते हैं। यह हमारा चुनाव है। और चाहें तो अनटांगा छोड़ सकते हैं; यह भी हमारा चुनाव है। खूंटी कहती नहीं कि मुझ पर टांगो। मैं कोट को नीचे भी पटक दे सकता हूं। कोई खूंटी मुझे मजबूर नहीं करती। मैं चाहूं अपनी जीवन ऊर्जा को किसी आकर्षण में लगा दूं। किसी के पीछे दौड़ने लगूं। कोहिनूर के पीछे दौड़ सकता हूं। कोहिनूर मुझसे नहीं कहता कि मेरे पीछे दौड़ो। मैं कोहिनूर के पीछे दौड़ सकता हूं, कि
जब तक कोहिनूर न मिल जाए, मेरा जीवन बेकार है।
अब मैंने एक खूंटी चुन ली, जिस पर मैं अपने को टांग कर रहूंगा। और सोचता हूं, टंग जाऊंगा, तो सब पा लूंगा। कोहिनूर मिल जाए, तो कुछ मिलना नहीं है। सिर्फ ऊर्जा व्यय हुई। और इतने | दिन तक पीछे दौड़ने की जो आदत पड़ गई, वह फिर कहेगी, अब और किसी के पीछे दौड़ो । अब कोई और राग खोजो कोई और आकर्षण, उसके पीछे दौड़ो ।
चाहूं तो मैं द्वेष पर भी अपने को टांग सकता हूं। द्वेष पर भी टांग | सकता हूं! मैं किसी के विरोध में लग जाऊं, मैं किन्हीं को नष्ट करने में लग जाऊं, मैं कुछ छोड़ने में लग जाऊं, तो भी मैं अपनी शक्ति को टांग सकता हूं।
दो ही तरह के लोग हैं। एक वे, जो किसी चीज को पाने में लग जाते हैं। एक वे, जो किसी चीज को छोड़ने में लग जाते हैं। एक | को हम गृहस्थ कहते हैं, दूसरे को हम संन्यासी कहते हैं। हमारी | आम बातचीत में, पकड़ने वाले को हम गृहस्थ कहते हैं, छोड़ने वाले को हम त्यागी कहते हैं। लेकिन कृष्ण नहीं कहेंगे। कृष्ण तो कहते हैं, जो दोनों के बाहर है, वह संन्यासी है। वह निष्काम कर्म को उपलब्ध हुआ, जो दोनों के बाहर है; जो अपनी ऊर्जा को किसी पर टांगता ही नहीं।
ध्यान रहे, जब आप अपनी ऊर्जा को न राग पर टांगेंगे, न द्वेष पर, तो भी ऊर्जा होगी। फिर ऊर्जा कहां जाएगी? अनटांगी गई ऊर्जा परमात्मा पर समर्पित हो जाती है; विराट में लीन हो जाती है। बिना टांगी गई ऊर्जा, अनफोकस्ड, अनंत के प्रति, अनंत के चरणों में बहने लगती है। जिस क्षण राग और द्वेष नहीं हैं, उसी क्षण | व्यक्ति का समस्त जीवन परमात्मा को समर्पित हो जाता है।
तीन तरह के समर्पण हुए, राग को समर्पित, द्वेष को समर्पित, राग-द्वेष दोनों के अतीत परमात्मा को समर्पित। यह परमात्मा को | समर्पित जीवन ही निष्काम कर्मयोग है।
और कृष्ण ने एक और बात उसमें कही। उन्होंने कहा कि यह बड़े सुख से बंधन के बाहर हो जाना है।
दुख से भी बंधन के बाहर हुआ जा सकता है। लेकिन दुख से | बंधन के बाहर जो हो जाता है, उसके हाथों में पैरों में बंधन की थोड़ी-बहुत रेखा और चोट रह जाती है। जैसे कोई कच्चे पत्ते को वृक्ष से तोड़ ले। कच्चा पत्ता भी वृक्ष से तोड़ा जा सकता है । पत्ते में भी घाव रह जाता है, वृक्ष में भी घाव छूट जाता है। एक पका पत्ता वृक्ष से गिरता है। कहीं खबर नहीं होती - मौन, निष्पंद, चुपचाप ।
289