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________________ इंद्रियजय और श्रद्धाल दबाने के लिए कोई विश्वास नहीं पकड़ा; जिसने अपने संदेह को है, तो कंधे पर बैठ जाता है। वह यह नहीं पूछता कि कहां पहुंचेंगे? दबाने के लिए विश्वास-अविश्वास के जाल में नहीं उलझा; जिसने कहीं भटका तो न दोगे? रास्ते में कोई दुर्घटना तो न करवा दोगे? कहा, मैं नहीं जानता, अज्ञानी हूं; अस्तित्व के सामने अज्ञानी की जरा हाथ सम्हलकर पकड़ना। वह सारी फिक्र छोड़ देता है। वह तरह जो खड़ा है, वह श्रद्धावान है। हाथ छोड़ देता है। अस्तित्व के समक्ष जो किसी भी तरह के ज्ञान को पकडकर खडा श्रद्धावान का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जिसे ज्ञान का दंभ नहीं। होता है, वह श्रद्धावान नहीं है। अस्तित्व के समक्ष जो किसी तरह | ज्ञान का दंभी कभी श्रद्धावान नहीं होता। दिखाई पड़ते हैं वही लोग के सिद्धांत को पकड़कर खड़ा होता है कि सत्य मुझे मालूम है, वह | श्रद्धावान। ज्ञान का दंभी कभी श्रद्धावान नहीं होता। तथाकथित अस्तित्व को जानने से डरता है, इसलिए सिद्धांत की आड़ में खड़ा | पंडित कभी श्रद्धावान नहीं होते। अश्रद्धा के कारण ही पांडित्य का होता है। और अस्तित्व को जानेगा नहीं कभी; सिद्धांत को ही | जाल बिछाए रहते हैं। अस्तित्व पर थोपेगा। कहेगा कि अस्तित्व ऐसा होना चाहिए, जैसा श्रद्धावान होता है बालक की भांति। कहता है, मुझे कुछ पता मेरा विश्वास है। नहीं, इसलिए जहां पहुंच जाऊं, वही मंजिल है। न पहुंचं, तो वही श्रद्धावान कहेगा, जैसा हो अस्तित्व, मैं वैसा ही उसे पी जाने को | | मंजिल है। जो मिल जाए, वही उपलब्धि है; जो न मिले, वह भी तत्पर और खुला हूं। मेरा कोई विश्वास नहीं, मेरा कोई सिद्धांत | उपलब्धि है। वैसा श्रद्धावान चित्त कहता है, जहां डूब जाए नाव, नहीं, मेरा कोई शास्त्र नहीं। मैं अज्ञानी हूं। मुझे कुछ पता नहीं। तो | जहां लग जाए, वही किनारा है। ऐसा असंशय, ऐसा मुक्त, ऐसा प्रभु मुझे जहां ले जाए। जिसे कुछ पता नहीं, वह जाने का आग्रह खुला हुआ व्यक्ति, ऐसा निरहंकारी, ऐसा विनम्र, ऐसा नहीं करता कि मैं यहां पहुंचूंगा, तो प्रभु मुझे वहां ले चलो। जिसका आग्रहशून्य, श्रद्धावान है। कोई विश्वास नहीं, वह अस्तित्व से कहता है, जहां ले जाओ, वही कृष्ण कहते हैं, जितेंद्रिय पुरुष और श्रद्धावान...। मंजिल है। जहां डूब जाए नाव, वही किनारा है। ऐसी, ऐसी चित्त क्योंकि जितेंद्रिय हो जाए कोई और श्रद्धावान न हो, तो अहंकार दशा-जहां डूब जाए नाव, वही किनारा है। कोई किनारे का मुझे | को उपलब्ध हो सकता है। जितेंद्रिय हो जाए कोई, जीत ले अपनी पता नहीं कि कहां ले चलो। नहीं; किसी लक्ष्य का मुझे पता नहीं | इंद्रियों को और श्रद्धा न हो, तो इंद्रियों की जीत अहंकार को और कि कौन लक्ष्य है। किसी प्रयोजन का मुझे पता नहीं कि क्या प्रगाढ़ कर जाएगी, और अकड़ आ जाएगी भारी, कि मैंने क्रोध को प्रयोजन है। मुझे पता नहीं, मैं कौन हूं। मुझे पता नहीं, जगत क्या जीत लिया; कि मैंने काम को जीत लिया; कि मैं ब्रह्मचर्य को है। मुझे कुछ भी पता नहीं। इग्नोरेंस टोटल है, अज्ञान पूर्ण है। ऐसे उपलब्ध हुआ हूं; कि मैं त्याग पा गया; कि मैं संन्यासी हूं; कि मैं पूर्ण अज्ञान में मैं कैसे कहूं कि मुझे कहां ले जाओ? मैं कैसे कहूं | साधु हूं; कि मैं तपस्वी हूं। कि मुझे उस मंजिल पर पहुंचा दो? मैं कैसे हूं कि मैं वहां जाना __ जिसको श्रद्धा न हो साथ, अगर वह इंद्रियों को जीत ले, तो वह चाहता हूं? मैं प्रभु को कैसे आदेश दूं? वैसे ही भ्रम में पड़ जाएगा, जैसे बहिर्प्रकृति को जीतकर वैज्ञानिक अश्रद्धावान आदेश देता है अस्तित्व को। श्रद्धावान अपना हाथ | | भ्रम में पड़ जाता है कि मैं सब कुछ हूं; सुप्रीम हो गया। अंतःप्रकृति पकड़ा देता अस्तित्व को, ऐसे ही जैसे छोटा बच्चा अपने बाप के | को जीतकर भी अहंकार आ सकता है, अगर श्रद्धा न हो। इंद्रियों हाथ में हाथ दे देता है। फिर वह यह भी नहीं पूछता, कहां जा रहे | | की विजय भी अहंकार की विजय बन सकती है। हो सकता है। और हैं? कहां ले चल रहे हैं? क्या है लक्ष्य? भटका तो न देंगे? नहीं; अहंकार की विजय आत्मा की हार है। वह छोटा बच्चा हाथ दे देता है। इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ देते हैं, इतना ही कहकर छोड़ नहीं कभी अपने खयाल किया! छोटा बच्चा बाप के हाथ में हाथ देते, जितेंद्रिय पुरुष; श्रद्धावान भी। वह कंडीशन गहरी है। वह पूरी देकर निश्चित चलता है। वह श्रद्धावान है, विश्वासी नहीं। क्योंकि न हो, तो जितेंद्रिय पुरुष अहंकारी हो सकता है। विश्वास तो तभी होता है, जब संदेह आ जाए; उसके पहले नहीं | | अक्सर ऐसा होता है। जो आदमी थोड़ा-बहुत क्रोध करता है, होता। वह श्रद्धावान है। बाप उसे रास्ते से मोड़ता है, तो मुड़ जाता | | वह उतना अहंकारी नहीं होता, जितना जो क्रोध नहीं करता, वह है; सीधा जाता है, तो सीधा जाता है। बाप उसे कंधे पर उठा लेता होता है। क्यों? क्योंकि जो क्रोध करता है, क्रोध उसे विनम्र भी कर | 249
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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