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गीता दर्शन भाग-20
तू मेरा मित्र है, तू मेरा प्रिय है, तू मेरा सखा है, इसलिए कहता हूं। प्राचीन है अर्जुन, अति पुरातन है, सनातन, अनादि, सबसे पहले,
यह, जब भी हम किसी के भी प्रति एक इंटिमेसी, एक समय नहीं हआ. तब भी यह सत्य था। क्यों? इसे याद न दिलाते. आंतरिकता से भरे होते हैं, तो एक क्षण में हमारी चेतना का तल | तो चल सकता था। बदल जाता है। हम कुछ और हो जाते हैं। जब हम किसी के प्रति | लेकिन अर्जुन से अगर कृष्ण कहें कि यह सत्य मैं ही दे रहा हूं, बहुत मैत्री और प्रेम से भरे होते हैं, तो हम बड़ी ऊंचाइयों पर होते तो शायद अर्जुन ज्यादा खुल न पाए, शायद बंद हो जाए। शायद हैं। और जब हम किसी के प्रति घृणा और शत्रुता से भरे होते हैं, | इतना भरोसा न कर पाए; शायद इतना ट्रस्ट पैदा न हो। तो कृष्ण तो हम बड़ी नीचाइयों में होते हैं। और जब हम किसी के प्रति उपेक्षा शुरू करते हैं अनादि से, किस-किस ने किस-किस से कहा। ऐसे से भरे होते हैं. तो हम समतल भमि पर होते हैं।
वे अर्जुन को राजी करते हैं, खुलने के लिए, ओपनिंग के लिए, द्वार सत्य के दर्शन तो वहीं हो सकते हैं, जब हम शिखर पर होते हैं, खुला रखने के लिए। अपनी चेतना की ऊंचाई पर। कृष्ण जो बात कह रहे हैं, अर्जुन | फिर याद दिलाते हैं कि मित्र है, प्रिय है। और जब अर्जुन को वे छलांग लगाए, तो ही समझ सकता है। अर्जुन अपनी जगह खड़ा पाएंगे कि वह ठीक ट्यूनिंग, ठीक उस क्षण में आ गया है, जहां रहे, तो नहीं समझ सकेगा। अर्जुन उछले थोड़ा, छलांग लगाए, तो मिलन हो सकता है, वहीं वे सत्य कहेंगे। इसलिए गीता में कुछ शायद जो सूर्य उसे दिखाई नहीं पड़ रहा अपनी जगह से, उसकी क्षणों में ट्यूनिंग घटित हुई है। किसी जगह अर्जुन बिलकुल कृष्ण एक झलक मिल जाए। कोई हर्ज नहीं, झलक के बाद वह अपनी के करीब आ गया, तब कृष्ण एक वचन बोलते हैं, जो बहुमूल्य है, जगह पर वापस लौट आएगा। लेकिन एक झलक भी जीवन को | जिसका फिर मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। रूपांतरित करने का आधार बन जाती है।
लेकिन वह उसी समय, जब अर्जुन और कृष्ण की चेतना इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू मित्र मेरा, प्रिय मेरा, इसलिए | तादात्म्य को उपलब्ध होती है, तभी। जब बोलने वाला और सुनने तुझसे सत्य की बात कहता हूं। यह मित्रता की स्मृति अर्जुन को एक वाला एक हो जाते हैं, एक रस हो जाते हैं, तभी-मैं आपको छलांग लगाने के लिए है, ताकि अर्जुन किसी तरह कृष्ण के पास कहूंगा, याद दिलाऊंगा कि किन क्षणों में-तब महावाक्य गीता में आ जाए।
उत्पन्न होते हैं: तब जो कष्ण बोलते हैं. वह महावाक्य है। उसके ध्यान रहे, दो ही उपाय हैं संवाद के। या तो कृष्ण अर्जुन के पास | पहले नहीं बोला जा सकता। प्रतीक्षा करनी पड़ती है। खड़े हो जाएं उसी चित्त-दशा में, जिसमें अर्जुन है, तो संवाद हो सत्य को बोलना हो, तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है। सत्य को सुनना सकता है। लेकिन तब सत्य का संवाद मुश्किल होगा। और या फिर हो, तो भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। आज की दुनिया तो बहुत जल्दी अर्जुन कृष्ण की चित्त-दशा में पहुंच जाए, तो फिर संवाद हो सकता | में है। इसलिए शायद, शायद इसीलिए सत्य की चर्चा बहुत है। तब संवाद सत्य का हो सकता है। दोनों के बीच पहाड़ और मुश्किल हो गई है। खाई का फासला है।
__ मैंने सुना है, एक फकीर के पास एक युवक सत्य की शिक्षा के यह चर्चा एक पर्वत के शिखर की और एक गहन खाई से चर्चा | लिए आया। पर उसने कहा, मुझे जल्दी है, मेरे पिता बूढ़े हो गए है। पीक टाकिंग टु दि एबिस। एक पर्वत का शिखर गौरीशंकर, | हैं। और घर मुझे जल्दी लौट जाना है। यह सत्य मैं कब तक जान पास में पहाड़ों के गड्ड में अंधेरे में दबी हुई खाई से बात करता है। | लूंगा? उस गुरु ने उसे देखा नीचे से ऊपर तक और कहा, कम से कठिन है चर्चा। भाषा एक नहीं, निकटता नहीं, बहुत मुश्किल है। कम तीन वर्ष तो लग ही जाएंगे। उस युवक ने कहा, तीन वर्ष! लेकिन खाई डर न जाए, अन्यथा और अंधेरे में छिप जाएगी और | भरोसा नहीं, मेरे पिता बचें या न बचें। कुछ और जल्दी नहीं हो सिकुड़ जाएगी। तो शिखर पुकारता है कि मित्र हूं तेरा, निकट हूं | सकता है? मैं जितना आप कहेंगे, उतना श्रम करूंगा; सुबह से तेरे। खुल; भय मत कर, सिकुड़ मत, संकोच मत कर। द्वार बंद सांझ तक। गुरु ने कहा, तब तो शायद दस वर्ष लग जाएंगे। उस मत कर। जो कहता हूं, उसे भीतर आ जाने दे।
शिष्य ने कहा, आप पागल तो नहीं हो गए? मैं कहता हूं, मैं बहुत अर्जुन को सब तरह का भरोसा दिलाने के लिए कृष्ण बहुत-सी | | श्रम करूंगा। रात सोऊंगा भी नहीं, जब तक आप जगाएंगे जागूंगा। बात कहते हैं। पहली बात तो उन्होंने यह कही कि यह सत्य अति | | रात-दिन सतत, कभी इनकार न करूंगा। जो भी करने को कहेंगे,