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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
सत्य को जानने की, सत्य को समझने की तैयारी मैत्री में संभव ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं कि तू मित्र है, प्रिय है, सखा है, इसलिए है। शत्रु के साथ हम पीठ करके खड़े हो जाते हैं; द्वार बंद कर लेते | तुझे मैं यह पुनः उस सत्य की बात कहता हूं, जो सदा है, चिरस्थाई हैं। शत्रु का हम स्वागत नहीं कर पाते। कृष्ण तो बताने को राजी हो | | है, सनातन है, नित्य है। जाएंगे शत्रु को भी; लेकिन शत्रु अपने द्वार बंद करके खड़ा हो | ___ एक और भी बात ध्यान रख लेनी जरूरी है। कृष्ण यह याद क्यों जाएगा। यह शर्त कृष्ण की तरफ से नहीं है।
दिलाते हैं अर्जुन को कि तू सखा है, प्रिय है, मित्र है? इस बात को सत्य तो सभी को उपलब्ध है। सूर्य निकला है, सभी को याद दिलाने की जरूरत क्या है? अर्जुन मित्र है, सखा है, याद उपलब्ध है। लेकिन जिसे नहीं उपलब्ध करना है, वह आंख बंद | दिलाने की क्या जरूरत है? यहां भी एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक करके खड़ा हो सकता है। नदी बही जाती है, सभी को उपलब्ध है। सत्य खयाल में ले लेना जरूरी है। लेकिन जिसे नहीं नदी के पानी को देखना है, नहीं पानी को पीना हम इतने विस्मरण से भरे हुए लोग हैं कि अगर हमें निरंतर चीजें है, वह पीठ करके खड़ा हो सकता है। नदी कुछ भी न कर सकेगी। | याद न दिलाई जाएं, तो हमें याद ही नहीं रह जाती। हम प्रतिपल पीठ करके खड़े होने में आपकी स्वतंत्रता है।
भूल जाते हैं। हमारी स्मृति बड़ी दीन है, और हमारा विवेक अत्यंत इसलिए सत्य को जब भी किसी के पास समझने कोई गया हो, रुग्ण है। मित्र को भी हम भूल जाते हैं कि वह मित्र है; प्रिय को भी तो एक मैत्री का संबंध अनिवार्य है। अन्यथा सत्य को पहचाना नहीं| | हम भूल जाते हैं कि वह प्रिय है; निकट को भी हम भूल जाते हैं जा सकता, समझा नहीं जा सकता, सुना भी नहीं जा सकता। । । कि वह निकट है।
जिसके प्रति मैत्री का भाव नहीं, उसे हम अपने भीतर प्रवेश __ दूसरे को भूल जाना तो बहुत आसान है। हम अपने को ही भूल नहीं देते हैं। और सत्य बड़ा सूक्ष्म प्रवेश है। उसके लिए एक जाते हैं। हमें अपना ही कोई स्मरण नहीं रह जाता है। हम कौन हैं, रिसेप्टिविटी, एक ग्राहकता चाहिए।
यही स्मरण नहीं रह जाता है। हम किस स्थिति में हैं, यह भी स्मरण जब आप अपरिचित आदमी के पास होते हैं, तो शायद आपने | नहीं रह जाता है। हम करीब-करीब एक बेहोशी में जीते हैं। एक खयाल किया हो, न किया हो; न किया हो, तो अब करें; जब आप | नींद जैसे हमें पकड़े रहती है। क्रोध आ जाता है, तब हमें पता चलता अपरिचित, अजनबी आदमी के पास होते हैं, तो क्लोज्ड हो जाते है कि क्रोध आ गया। आ गया, तब भी पता बहुत मुश्किल से हैं, बंद हो जाते हैं। आपके सब द्वार-दरवाजे चेतना के बंद हो जाते चलता है। सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें पता चल जाता है। हो गया, तब हैं। आप संभलकर बैठ जाते हैं; किसी हमले का डर है। अनजान | पता चलता है। लेकिन तब कुछ किया नहीं जा सकता। पक्षी हाथ
। आक्रमण का भय है। न हो आक्रमण, तो भी के बाहर उड गया होता है। लोग क्रोध कर लेते हैं. फिर कहते हैं अनजान आदमी अनप्रेडिक्टिबल है। पता नहीं क्या करे! इसलिए | कि हमें पता नहीं, कैसे हो गया! आपने ही किया, आपको ही पता तैयार होना जरूरी है। इसलिए अजनबी आदमी के साथ बेचैनी | नहीं? होश में थे, बेहोश थे? नींद में थे? लेकिन हम करीब-करीब अनुभव होती है। मित्र है, प्रिय है, तो आप अनआर्ड हो जाते हैं।। नींद में होते हैं। सब शस्त्र छोड़ देते हैं रक्षा के। फिर भय नहीं करते। फिर सजग कृष्ण अर्जुन को गीता में बहुत बार याद दिलाते हैं कि तू मेरा नहीं होते। फिर रक्षा को तत्पर नहीं होते। फिर द्वार-दरवाजे खुले मित्र है। बहुत बार, परोक्ष-अपरोक्ष, सीधे भी, कभी घूम-फिर कर छोड़ देते हैं।
| भी वे अर्जुन को याद दिलाए चले जाते हैं कि तू मेरा मित्र है। जब मित्र है, तो अतिथि हो सकता है आपके भीतर। मित्र नहीं है, तो भी कृष्ण को लगता होगा, अर्जुन बंद हो रहा है, खुल नहीं रहा है, अतिथि नहीं हो सकता। सत्य तो बहुत बड़ा अतिथि है। उसके लिए तभी वे कहते हैं, तू मेरा मित्र है; स्मरण कर। प्रिय है। और इसलिए हृदय के सब द्वार खुले होने चाहिए। इसलिए एक इंटिमेट ट्रस्ट, ही तो तुझसे मैं सत्य की बात कह रहा हूं। यह सुनकर शायद एक मैत्रीपूर्ण श्रद्धा अगर बीच में न हो, एक भरोसा अगर बीच में क्षणभर को अर्जुन की स्मृति लौट आए और वह खुला हो जाए, न हो, तो सत्य की बात कही तो जा सकती है, लेकिन सुनी नहीं जा निकट हो जाए, ओपेन हो जाए, और कृष्ण जिस सत्य के संबंध में सकती। और कहने वाला पागल है, अगर उससे कहे, जो सुनने में | | उसे जगाना चाहते हैं, उस जगाने की कोई किरण उसके भीतर पहुंच समर्थ न हो।
जाए। इसलिए कृष्ण बहुत बार गीता में बार-बार कहते हैं उसे कि