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गीता दर्शन भाग-28
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। | हमारे न जानने से। और हम जान लें, तो भी सत्य बदलता नहीं भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।। ३ ।। हमारे जानने से। वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है, | हां, बदलते हम जरूर हैं। सत्य को न जानें, तो हम एक तरह के क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए । यह योग | होते हैं। सत्य को जान लें, तो हम दूसरे तरह के हो जाते हैं। सत्य बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात अति मर्म का विषय है। वही है-जब हम नहीं जानते हैं, तब भी; और जब हम जानते हैं,
तब भी। ऐसा अगर सत्य न हो, तो फिर सत्य और असत्य में कोई
अंतर न रहेगा। +वन रोज बदल जाता है, ऋतुओं की भांति। जीवन | यह बहुत मजे की बात है कि असत्य हमारा इनवेंशन है, हमारा | परिवर्तन का एक क्रम है, गाड़ी के चाक की भांति | | आविष्कार है। सत्य हमारा इनवेंशन नहीं है। सत्य को हम निर्मित
घूमता चला जाता है। लेकिन चाक का घूमना भी एक नहीं करते, बनाते नहीं। असत्य को हम निर्मित करते हैं और बनाते न घूमने वाली कील पर ठहरा होता है। घूमता है चाक गाड़ी का, लेकिन किसी कील के सहारे, जो सदा खड़ी रहती है। कील भी घूम | जो मेरे द्वारा बनाया जा सकता है, वह असत्य होगा। और जाए, तो चाक का घूमना बंद हो जाए। कील नहीं घूमती, इसलिए | जिसके द्वारा मैं भी बनाया गया, और जिसमें मैं भी लीन हो चाक घूम पाता है।
जाऊंगा, वह सत्य है। कृष्ण नहीं थे, तब भी जो था; कृष्ण नहीं सारा परिवर्तन किसी अपरिवर्तित के ऊपर निर्भर होता है। | होंगे, तब भी जो होगा; औरों ने भी जिसे कहा, और भी आगे जिसे जीवन के परम नियमों में से एक नियम यह है कि दृश्य अदृश्य | | कहेंगे-वह सत्य है। पर निर्भर होता है, मृत्यु अमृत पर निर्भर होती है; पदार्थ परमात्मा सत्य नित्य है। इस नित्य सत्य को अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, मैं पर निर्भर होता है। घूमने वाला परिवर्तित जगत, संसार, न घूमने | | पुनः तुझसे कहता हूं। और क्यों कहता हूं, उसका कारण बताते हैं। वाले अपरिवर्तित सत्य पर निर्भर होता है। विपरीत पर निर्भर होती | | वह कारण समझ लेने जैसा है। वह कहते हैं, क्योंकि तू मेरा सखा हैं चीजें।
है, मेरा मित्र है, मेरा प्रिय है। इसलिए जो दिखाई पड़ता है, उस पर ही जो रुक जाता है, वह | ऊपर से देखने पर यह बात बड़ी अजीब-सी लगेगी कि क्या रहस्य से वंचित रह जाता है। जो दिखाई पड़ता है, उसके भीतर जो | कृष्ण भी किसी शर्त के आधार पर सत्य को बताते हैं-मित्र है, न दिखाई पड़ने वाले को खोज लेता है, वह रहस्य को उपलब्ध हो सखा है, प्रिय है! मित्र न हो, सखा न हो, प्रिय न हो, तो कृष्ण फिर जाता है।
सत्य को नहीं बताएंगे? क्या सत्य को बताने की भी कोई शर्त, कोई कृष्ण कहते हैं, वही योग, वही सत्य पुरातन है, सदा से चला कंडीशन है? क्या कृष्ण उसको नहीं बताएंगे जो प्रिय नहीं, मित्र आता है जो। या कहें कि सदा से ठहरा हुआ है जो; वही जो पहले नहीं, सखा नहीं? तब तो कृष्ण भी पक्षपात करते हुए मालूम पड़ेंगे। भी ऋषियों ने कहा था, वही मैं तुझसे पुनः कहता हूं। लेकिन पुनः ऊपर से जो देखेगा, ऐसा ही लगेगा। लेकिन और थोड़ा गहरा कहता हूं वही, जो सदा से है। कुछ नया नहीं है। कुछ अपनी ओर | देखना जरूरी है। और कृष्ण जैसे व्यक्तियों के साथ ऊपर से देखना से नहीं है।
खतरनाक है। सत्य में अपनी ओर से कुछ जोड़ा भी नहीं जा सकता। सत्य को | ___ कृष्ण जब यह कहते हैं कि मैं तुझे सत्य की यह बात बताता हूं, नया करने का भी कोई उपाय नहीं है। सत्य है। सत्य के साथ सिर्फ क्योंकि तू मेरा प्रिय है, क्योंकि तू मेरा सखा है, मेरा मित्र है। इसके एक ही काम किया जा सकता है और वह यह कि हम उसकी तरफ पीछे कारण यह नहीं है कि कृष्ण उसे न बताएंगे जो मित्र नहीं, सखा मुंह करके खड़े हो सकते हैं, या पीठ करके खड़े हो सकते हैं। और नहीं, प्रिय नहीं। कारण यह है कि जो मित्र नहीं, प्रिय नहीं, सखा हम सत्य के साथ कुछ भी नहीं कर सकते हैं। एक ही काम कर । नहीं, वह पीठ करके खड़ा हो जाता है सत्य की ओर। प्रिय होने, सकते हैं, या तो हम जानें उसे, या हम न जानने की जिद करें और सखा होने, मित्र होने का कुल प्रयोजन इतना ही है कि अर्जुन मुंह अज्ञान में खड़े रहें। लेकिन हम न जानें, तो भी सत्य बदलता नहीं । करके खड़ा हो सकता है।