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6 गीता दर्शन भाग-26
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। | फिर भी भिन्न है। भिन्न इसलिए है कि नर्तक तो नृत्य के बिना हो न कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते । । १४ ।। | सकता है, लेकिन नृत्य नर्तक के बिना नहीं हो सकता। नर्तक नृत्य और परमेश्वर भी भूतप्राणियों के न कर्तापन को और न | | के बिना हो सकता है, लेकिन नृत्य नर्तक के बिना नहीं हो सकता। कों को तथा न कर्मों के फल के संयोग को वास्तव में मूर्तिकार और मूर्ति में जो भेद है, वैसा भेद तो नृत्यकार और रचता है। किंतु परमात्मा के सकाश से प्रकृति ही बर्तती है, | नर्तक में नहीं है, लेकिन पूरा अभेद भी नहीं है। एक भी नहीं हैं अर्थात गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं। | दोनों। क्योंकि नृत्यकार हो सकता है, नृत्य न हो, लेकिन नृत्य नहीं
हो सकेगा। ठीक ऐसे ही, जैसे सागर हो सकता है, लहर न हो।
लेकिन लहर नहीं हो सकती सागर के बिना। सागर के होने में कोई 1 रमात्मा स्रष्टा तो है, लेकिन कर्ता नहीं है। इस सूत्र में | | कठिनाई नहीं है बिना लहर के। लेकिन लहर सागर के बिना नहीं 4 कृष्ण ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है, परमात्मा | हो सकती है। इसलिए सागर और लहर एक भी हैं और एक नहीं
स्रष्टा तो है, लेकिन कर्ता नहीं है। कर्ता इसलिए नहीं | | भी हैं। कि परमात्मा को यह स्मरण भी नहीं है-स्मरण हो भी नहीं सकता परमात्मा का जगत से जो संबंध है, वह नर्तक जैसा है। इसलिए है कि मैं हूं। मैं का खयाल ही तू के विरोध में पैदा होता है। तू | अगर हिंदुओं ने नटराज की धारणा की, तो बड़ी कीमती है। नाचते हो, तो ही मैं पैदा होता है। परमात्मा के लिए तू जैसा अस्तित्व में | हुए परमात्मा की धारणा की है। नृत्य करते शिव को सोचा, तो बहुत कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं का कोई खयाल परमात्मा को पैदा नहीं गहरा है। शायद पृथ्वी पर नृत्य करते हुए परमात्मा की धारणा हिंदू हो सकता है।
धर्म के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। जहां भी लोगों ने परमात्मा मैं के लिए जरूरी है कि तू सामने खड़ा हो। तू के खिलाफ, तू के | की सृष्टि की बात सोची है, वहां सृष्टि मूर्ति और मूर्तिकार वाली विरोध में, तू के साथ-सहयोग में मैं निर्मित होता है। परमात्मा के मैं सोची है, नृत्य और नर्तक वाली नहीं। का, अहंकार के निर्माण का कोई भी उपाय नहीं है। इसलिए कर्ता का | | लोग उदाहरण देते हैं कि जैसे कुम्हार घड़े को बनाता है। नहीं, कोई खयाल परमात्मा को नहीं हो सकता। लेकिन स्रष्टा वह है। और | परमात्मा इस तरह जगत को नहीं बनाता है। परमात्मा इसी तरह स्रष्टा से अर्थ है कि जीवन की सारी सजन-धारा उससे ही बहती है।। | जगत को बनाता है, जैसे नर्तक नृत्य को बनाता है-एक। पूरे सारा जीवन उससे ही जन्मता और उसी में लीन होता है। लेकिन इस | समय डूबा हुआ नृत्य में और फिर भी अलग। क्योंकि चाहे तो नृत्य स्रष्टा की बात को भी थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी होगा। | को छोड़ दे और अलग खड़ा हो जाए। नृत्य बचेगा नहीं उसके
स्रष्टा भी बहुत तरह से हो सकता है कोई। एक मूर्तिकार एक | | बिना। नर्तक उसके बिना बच सकता है। इसलिए नृत्य नर्तक पर मूर्ति का निर्माण करता है। मूर्ति बनती जाती है, मूर्तिकार से अलग | | निर्भर है, नर्तक नृत्य पर निर्भर नहीं है। होती चली जाती है। जब मूर्ति बन जाती है, तो मूर्तिकार अलग होता ___ परमात्मा और प्रकृति के बीच नर्तक और नृत्य जैसा संबंध है। है, मूर्ति अलग होती है। मूर्तिकार मर भी जाए, तो जरूरी नहीं कि प्रकृति निर्भर है परमात्मा पर। परमात्मा प्रकृति पर निर्भर नहीं है। मूर्ति मरे। मूर्तिकार के बाद भी मूर्ति जिंदा रह सकती है। मूर्तिकार ने | परमात्मा न हो, तो प्रकृति खो जाएगी, शून्य हो जाएगी। लेकिन जो सृष्टि की, वह सृष्टि अपने से अन्य है, अलग है, बाहर है। | परमात्मा प्रकृति के बिना भी हो सकता है। भेद भी है और अभेद मूर्तिकार बनाएगा जरूर, लेकिन मूर्तिकार पृथक है। | भी, भिन्नता भी है और अभिन्नता भी, दोनों एक साथ। ___एक नृत्यकार नाचता है। एक नर्तक नाचता है। वह भी सृजन प्रकृति के बीच परमात्मा वैसे ही है, जैसे नृत्य के बीच नर्तक है। करता है नृत्य का। लेकिन नृत्य नर्तक से अलग नहीं होता है। नर्तक लेकिन जब नर्तक नाचता है, तो शरीर का उपयोग करता है। शरीर चला गया, नृत्य भी चला गया। नर्तक मर जाएगा, तो नृत्य भी मर की सीमाएं शुरू हो जाती हैं। पैर थक जाएगा, जरूरी नहीं कि नर्तक जाएगा। नर्तक ठहर जाएगा, तो नृत्य भी ठहर जाएगा। नृत्य नर्तक थके। पैर टूट भी सकता है, जरूरी नहीं कि नर्तक टे। पैर चलने से भिन्न कहीं भी नहीं है, फिर भी भिन्न है। इस अर्थ में तो भिन्न नहीं | | से थकेगा, पैर की सीमा है। हो सकता है, नर्तक अभी न थका हो। है नर्तक से नृत्य, जिस अर्थ में मूर्ति मूर्तिकार से भिन्न होती है। लेकिन | नर्तक नृत्य करते शरीर के भीतर कैटेलिटिक एजेंट की तरह है।
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