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________________ गीता दर्शन भाग-200 मैंने कहा, एक तीन दिन यह सोचना बंद कर दें। उन्होंने कहा, उससे पानी है, वह दूसरा है, अन्य है। क्या होगा? मैंने कहा, आप तीन दिन बंद करें, फिर हम बात करेंगे। मिट्टी की एक पतली दीवाल घड़े के भीतर के पानी को और नदी लेकिन दूसरे दिन सुबह वे मुझसे बहुत नाराज हो गए। और के पानी को अलग-अलग करती है। टूट जाए घड़ा, फूट जाए उन्होंने कहा कि आपने मेरी बड़ी हानि कर दी। मैंने रात में ही सोचना घड़ा, पानी बाहर का और भीतर का एक हो जाता है। छोड़ा कि मुझे दीवालें दीवालें दिखाई पड़ने लगी! ब्रह्म दिखाई नहीं | अहंकार की झीनी-सी दीवाल मुझे और ब्रह्म को अलग-अलग पड़ा। यह प्रोजेक्शन, मैंने उनसे कहा, यह प्रोजेक्शन हुआ। | करती है। टूट जाए दीवाल, फूट जाए अहंकार का घड़ा, मैं और __ अहंकार अभ्यास कर सकता है देखने का कि सबमें ब्रह्म है। ब्रह्म एक हो जाते हैं। और तब ही दिखाई पड़ता है कि सभी लेकिन वह अभ्यास सिर्फ एक सपना होगा। अहंकार के रहते | कुछ-तब ऐसा भी दिखाई नहीं पड़ता है कि ब्रह्म कण-कण में हुए-मैं भी हूं और सब में ब्रह्म है, यह नहीं हो सकता। हां, इतना | | है—तब ऐसा दिखाई पड़ता है कि ब्रह्म ही कण-कण है, में भी हो सकता है कि मैं अपने को धोखे में डाल लूं। आटोहिप्नोटाइज | | नहीं। क्योंकि जब हम कहते हैं, कण में ब्रह्म है, तो ऐसा लगता है, कर लूं, सम्मोहित कर लूं कि हां, सब ब्रह्म है। ऐसा मानकर चलने | कण भी अलग है और उसके भीतर ब्रह्म भी कहीं है। लगू कि सब ब्रह्म है। मानता रहूं, मानता रहूं; अपने को धोखा देता नहीं, जब घड़ा टूटता है मैं का, तो ऐसा नहीं दिखाई पड़ता कि रहूं, धोखा देता रहूं, तो एक दिन ऐसी घड़ी आ जाएगी कि मेरे मन | | कण-कण में ब्रह्म है। ऐसा दिखाई पड़ता है कि कण-कण और ब्रह्म का ही जाल चारों तरफ फैल जाएगा और मुझे दिखाई पड़ेगा, सब | | एक ही चीज के दो नाम हैं। अस्तित्व और ब्रह्म एक ही चीज के दो ब्रह्म है। लेकिन वह मन का ही जाल होगा। वह ब्रह्म का अनुभव | | नाम हैं। फिर ऐसा कहना भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता है कि ईश्वर न होगा। वह अहंकार का ही धोखा और डिसेप्शन होगा। वह ब्रह्म है। फिर तो ऐसा ही कहना अच्छा मालूम पड़ता है कि है और का अनुभव न होगा। | ईश्वर, एक ही बात है। जो है, वह ईश्वर ही है। अस्तित्व ही ब्रह्म ब्रह्म का अनुभव अभ्यास से नहीं मिलता है। ब्रह्म का अनुभव है, अस्तित्व ही! अहंकार के विसर्जन से मिलता है। इस बात को ठीक से खयाल में ऐसी प्रतीति के लिए भीतर से मैं की दीवाल का टूट जाना जरूरी ले लेंगे। ब्रह्म का अनुभव अहंकार के अभ्यास से नहीं मिलता, है। बहुत बारीक है दीवाल, ट्रांसपैरेंट भी है, पारदर्शी है, इसलिए ब्रह्म का अनुभव अहंकार के विसर्जन के अभ्यास से मिलता है। पता भी नहीं चलता। यह बहुत मजे की बात है। अहंकार खो जाए, में न रह जाऊं, तो जो रह जाएगा, वह ब्रह्म अगर पत्थर की दीवाल हो, ट्रांसपैरेंट न हो, आर-पार दिखाई मालूम पड़ेगा। मैं रहूं, और जो दिखाई पड़ता है, उस पर ब्रह्म को | | न पड़ता हो, तो दीवाल का पता चलता है। अगर आप कांच की आरोपित करूं, इम्पोज करूं, तो धीरे-धीरे ऐसा हो जाएगा कि मुझे | | दीवाल बनाएं, ट्रांसपैरेंट हो, तो पता भी नहीं चलता है कि दीवाल ब्रह्म दिखाई पड़ने लगे। लेकिन वह ब्रह्म, ब्रह्म नहीं, मेरा ही भ्रम | है; क्योंकि आर-पार दिखाई पड़ता है। है। वह ब्रह्म, ब्रह्म का अनुभव नहीं, मेरी ही कल्पना का फैलाव | | इसलिए मैं की दीवाल अगर पत्थर जैसी सख्त होती. तब तो हमें है। वह फैलाया जा सकता है। आर-पार दिखाई ही न पड़ता; हम अपने मैं के भीतर बंद हो जाते इस सूत्र में ध्यान रख लेना जरूरी है कि जब कृष्ण कहते हैं, | | और सारी दुनिया बाहर बंद हो जाती, आर-पार कोई संबंध ही न सभी कुछ ब्रह्म हो जाता है, ऐसे व्यक्ति को, ऐसे पुरुष को, ऐसी रहता। लेकिन मैं की दीवाल ट्रांसपैरेंट है, पारदर्शी है; कांच की चेतना को सभी कुछ ब्रह्म हो जाता है। कब? जब उस मैं की ज्योति । दीवाल है। आर-पार साफ दिखाई पड़ता है। इसलिए खयाल ही बुझ जाती है, जब उस मैं का दीया टूट जाता है। तब उपाय नहीं नहीं आता कि बीच में कोई दीवाल है। रहता कुछ और का, वही बच रहता है। कांच के पास खड़े हैं। बाहर का सब दिखाई पड़ रहा है। सूरज ठीक वैसे ही, जैसे एक घड़ा है। पानी से भरा है, नदी में चल | दिखाई पड़ता है। चांद-तारे दिखाई पड़ते हैं। कांच की दीवाल दिखाई रहा है। नदी में तैर रहा है, पानी से भरा हुआ घड़ा। उस पानी से | नहीं पड़ती। ऐसी कांच की दीवाल है। लेकिन है। प्रमाण क्या है कि भरे हए घडे को भी ऐसा नहीं मालम पडता कि जो पानी भीतर है. है? प्रमाण यही है कि मैं आपसे अलग मालम पडता है। जहां वही बाहर है। घड़ा कहता है, यह मेरा पानी है। बाहर जो नदी का | अलगपन का बोध हो रहा है, वहां बीच में कोई दीवाल है, कोई [122|
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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