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गीता दर्शन भाग-20
कर्म है। जब मैं खुद ही अज्ञात से जन्मा हूं, तो मेरे हाथ से होने | हिंसा का मार्ग बता रहे हैं! वाला भी अज्ञात से ही जन्म रहा है। मैं सिर्फ बीच का माध्यम हूं। | नहीं; अहिंसा के मार्ग का अर्थ बहुत गहरा है, जितना कि
लेकिन तर्क और बुद्धि की बात नहीं है; क्योंकि तर्क और बुद्धि | अहिंसक कभी भी नहीं समझ पाते। अहिंसक-तथाकथित पूछती है, क्यों? और जहां क्यों का उत्तर नहीं मिलता, तर्क और अहिंसक, जो समझते हैं कि वे नानवायलेंट हैं; अहिंसा, बुद्धि वहां से लौट आती है। और वह कहती है, वह हमारा क्षेत्र नानवायलेंस के मानने वाले हैं उनको भी पता नहीं कि अहिंसा नहीं है। वह है ही नहीं। जहां क्यों का उत्तर नहीं मिलता, वह है ही का क्या अर्थ है। किसी महावीर को कभी पता होता है कि अहिंसा नहीं। जहां क्यों का उत्तर मिल जाता है, वही है। लेकिन हृदय वहां | का क्या अर्थ है। खोजता है, जहां क्यों का उत्तर नहीं है।
अहिंसा का यह अर्थ नहीं है कि तुम किसी को मत मारो। क्योंकि और बड़े मजे की बात है कि जीवन के समस्त गहरे प्रश्न बुद्धि अगर अहिंसा का यह मतलब है कि तुम किसी को मत मारो, तब के लिए खुलने योग्य नहीं हैं, मिस्टीरियस हैं। बुद्धि से कुछ भी | तो अहिंसा का यह मतलब हुआ कि आत्मा मर सकती है! तो गहरा प्रश्न खुला नहीं कभी, सिर्फ उलझा; और-और भी उलझा | महावीर तो निरंतर चिल्लाकर कहते हैं कि आत्मा अमर है। जब है। थोड़ा-सा खुलता लगता है, तो हजार नई उलझनें खुल जाती महावीर कहते हैं, आत्मा अमर है, तो तुम मार ही कैसे सकते हो? हैं, और कुछ भी नहीं खुलता।
जब मार ही नहीं सकते हो, तो हिंसा की बात ही कहां रही? हां, अज्ञात से आता हूं मैं, अज्ञात को जाता हूं, इसलिए मेरे हाथों से | इतना ही कर सकते हो कि शरीर और आत्मा को अलग कर दो। भी जो हो रहा है, वह भी अज्ञात ही कर रहा है। अगर मैंने किसी | तो शरीर सदा से मरा हुआ है और आत्मा कभी मरी हुई नहीं है। तो के पैर दबा दिए हैं; और अगर मैंने राह चले किसी गिरे आदमी को | मरे हुए को, गैर-मरे हुए से अगर किसी ने अलग भी कर दिया, उठा दिया है. और अगर मैंने चौरस्ते पर खडे होकर किसी को बतातो हर्जा क्या है? कछ भी तो हर्ज नहीं है। दिया है कि बाएं से जाओ तो नदी पर पहुंच जाओगे; तो यह मेरी | महावीर खुद कहते हैं, आत्मा अमर है, इसलिए महावीर का यह
अंगुली का इशारा, यह मेरे हाथों की ताकत, मेरी नहीं है। यह | मतलब नहीं हो सकता अहिंसा से कि तुम किसी को मारो मत। ताकत और ये इशारे भी सब अज्ञात से मुझ में आते हैं और मुझ से महावीर का भी मतलब यही है और कृष्ण का भी मतलब यही है फिर अज्ञात में चले जाते हैं।
| कि मारने की इच्छा मत करो। मरता तो कोई कभी नहीं, लेकिन ऐसी हृदय की समझ गहरी हो जाए, तो व्यक्ति ईश्वर-अर्पण मारने की इच्छा की जा सकती है। और पाप मारने से नहीं लगता, कर पाता है। और तब ईश्वर-अर्पित सेवा भी वही कर जाती है, जो | | मारने की इच्छा से लगता है। मरता नहीं है कोई। योगाग्नि को समर्पित इंद्रियों से होता है।
मैंने एक पत्थर उठाया और आपका सिर तोड़ देने के लिए फेंका। कृष्ण और भी गिनाते हैं, वे कहते हैं, अहिंसादि मार्गों से! | नहीं लगा पत्थर और किनारे से निकल गया। कुछ चोट नहीं
अहिंसा से जो चलता है, वह भी वहीं पहुंच जाता है। बड़ी पहुंची; कहीं कुछ नहीं हुआ। लेकिन मेरी हिंसा पूरी हो गई। असल कंट्राडिक्टरी बात मालूम पड़ती है; बड़ी विरोधी बात मालूम पड़ती | | में मैंने पत्थर फेंका, तब हिंसा प्रकट हुई। पत्थर फेंकने की कामना है। क्योंकि कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू हिंसा की फिक्र मत | की, आकांक्षा की, वासना की, तभी हिंसा पूरी हो गई। पत्थर फेंकने कर, क्योंकि कोई मरता ही नहीं, अर्जुन। मरने का खयाल ही भ्रम की वासना की, तब भी हिंसा मेरे सामने प्रकट हुई। पत्थर फेंकने है। न कोई कभी मरा, न कोई कभी मरेगा। तू हिंसा की बात ही मत की वासना कर सकता हूं, इसकी संभावना मेरे अचेतन में छिपी है, कर। तू युद्ध में उतर जा।
तभी हिंसा हो गई। मैं हिंसा कर सकता हूं, तो मैंने हिंसा कर दी। ये कृष्ण यहां बीच में एक छोटा-सा वाक्य उपयोग करते हैं कि हिंसा का संबंध किसी को मारने से नहीं, हिंसा का संबंध मारने अहिंसादि मार्गों से चले हुए लोग भी वहीं पहुंच जाते हैं! की वासना से है। तो जब कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी! ___ अहिंसा का मार्ग क्या है? अहिंसा का मार्ग क्या यह है कि मैं वे जो किसी को मारने की वासना से मुक्त हो जाते हैं। तो इसे जरा किसी को न मारूं? अगर यह है, तो कृष्ण की बात फिर उलटी है, समझना पड़ेगा। जो उन्होंने पहले कही उससे। फिर तो कृष्ण जो बता रहे हैं, वह वे जो किसी को मारने की वासना से मुक्त हो जाते हैं, वे भी