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गीता दर्शन भाग-2
जिस दिन कोई आदमी अपने छोटे-से घर को छोड़ देता है, उस दिन सारी पृथ्वी उसकी अपनी हो जाती है। असल में छोटे-से घर को इतना कसकर पकड़ता है कि पूरी पृथ्वी उसकी अपनी हो कैसे सकती है? हाथ फैले हुए चाहिए पूरी पृथ्वी को पकड़ने के लिए। तब छोटी चीज को कोई पकड़ेगा, तो फिर बड़े के लिए फैलाव नहीं
रह जाता।
राम ने कहा, इसलिए भी अपने को बादशाह कहता हूं कि जब भी भीतर देखता हूं, जब भी अपने भीतर झांकता हूं, तभी पाता कि अनंत खजाने, अनंत साम्राज्य, सब मेरा है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरा न हो ।
तो राजऋषि का मैं तो अर्थ करता हूं, ऋषि राजा हो जाता है। सभी ऋषि राजऋषि हैं। एक दिशा से ऐसा अर्थ करना चाहूं । दूसरी दिशा से एक और अर्थ करना चाहूं ।
योग की दो प्रक्रियाएं प्रचलित रही हैं। या ज्ञान की या जानने की दो निष्ठाएं हैं। एक निष्ठा का नाम सांख्य है, और एक निष्ठा का नाम योग है। कृष्ण ने गीता में बहुत - बहुत बार इन दो निष्ठाओं को स्पर्श किया है। सांख्य-निष्ठा का अर्थ है, करना कुछ भी नहीं है, केवल जानना है। करने योग्य कुछ भी नहीं है; सिर्फ जानने योग्य है । रत्तीभर भी कुछ करने की जरूरत नहीं है; सिर्फ जानने की जरूरत है । जानने से ही सब मिल जाएगा। जानने से ही सब हो जाएगा; करने का कोई भी कारण नहीं है।
सांख्य से जो आदमी ज्ञान को उपलब्ध होता है; उसने हाथ भी नहीं हिलाया है। वह राजा की तरह अपने सिंहासन पर ही बैठा रहा है। उसने कुछ किया ही नहीं है। सच तो, उसके बिना कुछ किए सब हुआ है, होता रहा है। राजा का अर्थ ही यही है, उसके बिना कुछ किए सब हो जाए। अगर करना पड़े, तो फिर राजा नहीं है। राजा का जो भीतरी मौलिक अर्थ है, वह यही है कि जिसके बिना किए सब होता हो; जिसके भीतर इच्छा भी पैदा न हो पाए कि पूर्ति सामने मौजूद हो जाए। ठीक इन अर्थों में राजा कभी पृथ्वी पर होते नहीं। लेकिन सांख्य ऐसा ही राजयोग है, बिना कुछ किए सब मिल जाता है।
सांख्य का कहना ही यही है कि तुम करते हो, इसीलिए नहीं मिलता है। सांख्य का कहना यही है कि जिसे तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। तुम खोज रहे हो, इसलिए भीतर नहीं देख पाते, क्योंकि खोज में बाहर उलझे रहते हो। करो खोज बंद; रुक जाओ बैठ जाओ। जैसे सिंहासन पर राजा बैठा हो, ऐसे बैठ
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| जाओ। कुछ मत करो। आंख करो बंद; सब छोड़ो; और पा लो | उसे, जो भीतर मौजूद है।
वह सदा से मौजूद है, लेकिन तुम इतने दौड़ रहे हो कि तुम्हारी | दौड़ की वजह से तुम वहां न पहुंच पाओगे, जो भीतर दौड़ने | वाला सदा बाहर जाता है। खोजने वाला बाहर खोजता है । करने वाला बाहर करता है।
ध्यान रहे, सब करना बाह्य है; भीतर कुछ भी नहीं किया जा सकता। भीतर तो वही जाता है, जो नान- डूइंग में, अक्रिया में उतरता है; अकर्म में जो नहीं करता कुछ, वह भीतर चला जाता है। जो कुछ करता है, वह बाहर भटक जाता है।
तो सांख्य कहता है, भीतर रखी है संपदा । तुम कुछ मत करो, तो पालो 1
लाओत्से ने चीन में कहा है, सीक, एंड यू विल लूज; खोजो, और तुमने खोया । सीक, एंड यू विल नाट फाइंड, खोजो, और तुम कभी न पा सकोगे। डू नाट सीक, एंड फाइंड; मत खोजो, और पा लो।
अब यह सांख्य की निष्ठा है लाओत्से में । खोजो मत, और पा लो। बड़ी उलटी बात है। करीब-करीब ऐसे ही, जैसा मैंने सुना कि एक मछली ने जाकर मछलियों की रानी से पूछा कि सागर के संबंध
बहुत सुनती हूं, कहां है यह सागर? कहां खोजूं कि मिल जाए? कहां जाऊं कि पा लूं ? कौन-सा है मार्ग? क्या है विधि ? क्या है उपाय? कौन है गुरु, जिससे मैं सीखूं? यह सागर क्या है ? यह सागर कहां है? यह सागर कौन है ?
वह रानी मछली हंसने लगी। उसने कहा, खोजा, तो भटक जाओगी। गुरु से पूछा, कि उलझन हुई। विधि खोजी, तो विडंबना है । खोजो मत पूछो मत। उस मछली ने कहा, लेकिन फिर यह सागर मिलेगा कैसे? तो उस रानी मछली ने कहा, सागर के मिलने की बात ही गलत है, क्योंकि सागर को तूने कभी खोया ही नहीं है। | तू सागर ही है। सागर में ही पैदा होती है; सागर में ही बनती है; सागर में ही जीती है; सागर में ही विदा होती है; सागर में ही लीन।
कुछ है, सागर ही है चारों तरफ। लेकिन उस मछली ने कहा, मुझे तो दिखाई नहीं पड़ता !
मछली को सागर दिखाई नहीं पड़ सकता, क्योंकि हम सिर्फ उसी को देख पाते हैं, जो कभी मौजूद होता है और कभी गैर-मौजूद हो जाता है। हम उसको नहीं देख पाते, जो सदा मौजूद है। सदा मौजूद दिखाई नहीं पड़ता।