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काम-क्रोध से मुक्ति
आज्ञा मानने लगती हैं। और जिस व्यक्ति का इस चक्र पर अधिकार | वही उपलब्ध होता है मोक्ष को, मुझे! नहीं है, उसे अपनी इंद्रियों की आज्ञा माननी पड़ती है। इस चक्र के | । जीसस भी ठीक इसी भाषा में बोलते हैं। जीसस भी कहते हैं, इस पार इंद्रियों की आज्ञा है; उस पार अपनी मालकियत शुरू होती | आई एम दि ट्रथ, आई एम दिवे। और जिसे भी पहुंचना हो प्रभु तक, है। इसलिए उस चक्र को दि आर्डर, आज्ञा ही नाम दे दिया गया। | आओ मेरे द्वारा। इस तरफ रहोगे, तो इंद्रियों की आज्ञा माननी पड़ेगी। उस तरफ बुद्ध भी कहते हैं। रहोगे, तो इंद्रियों को आज्ञा दे सकते हो।
निश्चित ही, हमारे मैं और उनके मैं के उपयोग में कोई अंतर यह बहुत वैज्ञानिक सूत्र है। समझने का कम, करने का ज्यादा होना चाहिए। हम जब भी कहते हैं मैं, तब वह तू के विपरीत एक शब्दों से पहचानने का कम, प्रयोग में उतरने का ज्यादा। इसे थोड़ा शब्द है। जब कृष्ण और क्राइस्ट जैसे लोग कहते हैं मैं, तब तू से प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे खयाल में आ सकता है। उसका कोई संबंध नहीं, अनरिलेटेड है। उससे तू से कोई लेना-देना
ही नहीं है। इसीलिए इतनी सरलता से कह पाते हैं कि तू छोड़ सब
मुझ पर। मुझे कर प्रेम परमात्माओं के परमात्मा की तरह। ___भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ___ अर्जुन संदेह भी नहीं उठाता। अर्जुन के मन में भी तो सवाल उठा सुहृदं सर्व भूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति । । २९।।। होगा। अपना सखा, अपना साथी, सारथी बना हुआ बैठा है! और हे अर्जुन! मेरा भक्त मेरे को यज्ञ और तपों का भोगने निश्चित ही, स्थिति तो अर्जुन की ही ऊपर थी। रथ में तो वही
वाला, और संपूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा । विराजमान था। कृष्ण तो सिर्फ सारथी थे, अर्जुन के रथ चलाने वाले • संपूर्ण भूतं प्राणियों का सुहृद अर्थात स्वार्थरहित प्रेमी, ऐसा थे। जहां तक संसार की हैसियत का संबंध है, उस घड़ी में कृष्ण तत्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है। | की हैसियत अर्जुन से बड़ी न थी।
अब यह बहुत मजेदार घटना है। जो अपने को कहता है कि मैं
| परमात्माओं का परमात्मा, वह एक साधारण से अज्ञानी आदमी का कष्ण कहते हैं, मुझे जो प्रेम करता है सर्व लोकों के | | सारथी बन जाता है! अहंकारी होता, तो कभी न बनता। एक U परमात्मा की भांति! मुझे, कृष्ण कहते हैं, मुझे जो प्रेम | | साधारण से आदमी के रथ के घोड़ों को निकालकर सांझ नदी पर
करता है। जब हम पढ़ेंगे और कृष्ण कहते हैं, सब | | पानी पिला लाता है; सफाई कर लाता है। अहंकारी होता, तो यह लोकों के परमात्मा की भांति! परमात्माओं का भी परमात्मा! जब | | संभव न था। अहंकारी कहीं सारथी बने हैं! अहंकारी रथ पर हम पढ़ते हैं, तो हमें थोड़ी कठिनाई होगी कि कृष्ण स्वयं को सब | विराजमान होते हैं। अर्जुन भलीभांति जानता है कि अहंकार का तो परमात्माओं का परमात्मा कहते हैं! बड़े अहंकार की बात मालूम | कोई सवाल ही नहीं है। क्योंकि जो आदमी सारथी की तरह घोड़ों पड़ती है। बहुत ईगोइस्ट मालूम पड़ती है। क्योंकि हम मैं का एक | | की लगाम लेकर बैठ गया है, उससे ज्यादा निरहंकारी आदमी और ही अर्थ जानते हैं।
कहां खोजने से मिलेगा! हमारा मैं सदा ही तू के विपरीत है। हमारे मैं का एक ही अनुभव | फिर वह सारथी बना हुआ आदमी कह रहा है कि तू मुझे जान है-तूं के खिलाफ, तू से भिन्न, तू से अलग। हमारे मैं में तू | कि मैं परमात्माओं का परमात्मा हूं! अर्जुन पहचानता है। कृष्ण की इनक्लूडेड नहीं है, एक्सक्लूडेड है। कृष्ण जैसे व्यक्ति जब कहते | | विनम्रता को पहचानता है। इसलिए कृष्ण के अहंकार जैसे शब्द के हैं, मैं, तो उनके मैं में सब तू इनक्लूडेड हैं, सब तू सम्मिलित हैं। उपयोग को भी समझ पाता है। सब तू इकट्ठे उनके मैं में सम्मिलित हैं।
___ हमें बहुत कठिनाई हो जाएगी। इसलिए कृष्ण पर बहुत लोगों ने यह आयाम हमारे लिए नहीं है। इसका हमें कोई परिचय नहीं है। आपत्ति की है कि कृष्ण घोषणा करते हैं, सर्व धर्मान परित्यज्य, सब इसलिए कृष्ण पर अनेक लोगों को आपत्ति लगती है कि क्या बात धर्म छोड़कर तू मेरी शरण में आ जा-मामेकं शरणं व्रज-आ जा कहते हैं। कहते हैं कि मझे जो प्रेम करता है सब परमात्माओं के मेरी शरण। यह बात ठीक नहीं मालम पडती है। परमात्मा की भांति, वही उपलब्ध होता है मुक्ति को, आनंद को! जिन्हें ठीक नहीं मालूम पड़ती, वे फिर पुनर्विचार करें। कहीं उन्हें
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