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________________ गीता दर्शन भाग-28 इकट्ठ परिग्रह से छलांग लगानी सदा आसान है। रोज-रोज, | है कि बांट दे, उसने उसको भी भेजा होगा, जो लेने को मौजूद रोज-रोज, रोज-रोज...। एक क्षण में सब छोड़ देना आसान है। | होगा। वह बाहर गई और एक भिखारी खड़ा था। पैसे देकर वह क्षण-क्षण, जीवनभर छोड़ते रहना बहुत कठिन है। मगर दिखाई | | भीतर आ गई। भरोसा गहरा हुआ; ट्रस्ट बढ़ा। मोहम्मद ने कहा, नहीं पड़ सकता ऊपर से। इसलिए मोहम्मद को बहुत लोग तो | | जिसने मुझे कहा कि पैसे बांट दे, उसने उसको भी भेजा होगा जो मानेंगे कि अपरिग्रही हैं ही नहीं। पर मैं कहता हूं कि उनका द्वार पर खड़ा है। अपरिग्रह बहुत गहरा है। भीतर लौटकर आई। मोहम्मद ने आंखें बंद कीं। मुस्कुराए। __मरने के दिन, बीमार थे, तो चिकित्सकों ने मोहम्मद की पत्नी चादर ओढ़ ली और श्वास छूट गई। जो जानते हैं, वे कहते हैं, को कहा कि आज रात शायद ही कटे। तो उसने पांच दीनार बचाकर | मोहम्मद उतनी देर पांच रुपए बंटवाने को रुके। वह तड़फन यही रख लिए। दवा की जरूरत पड़ जाए; पांच रुपए बचाकर रख लिए। थी कि कब वह पत्नी को राजी कर लें, छोड़ दे! रात क्या भरोसा! दवा, चिकित्सक, कुछ इंतजाम करना पड़े। लेकिन पत्नी ने भी क्यों बचाए थे पांच रुपए? वही जीवन का बारह बजे रात मोहम्मद करवट बदलते रहे। लगे कि बहुत बेचैन | मोह। हम भी बचाते हैं, तो जीवन का मोह। सब बचाव जीवन के हैं। लगे कि बहुत परेशान हैं। अंततः उन्होंने आंख खोली और | मोह में है। सब भय, मिट न जाएं, इस डर में हैं। । अपनी पत्नी से कहा कि मझे लगता है. आज मैं अपरिग्रही नहीं हैं। कष्ण कहते हैं. ज्ञान की धारा जब बहती. ते आज घर में कुछ पैसा है। मत करो ऐसा, क्योंकि परमात्मा अगर | को नष्ट करती है अर्जुन। मोह को इसलिए नष्ट करती है कि मोह मुझसे पूछेगा कि मोहम्मद, मरते वक्त नास्तिक हो गया? जिसने अज्ञान है। जिंदगीभर दिया, वह एक रात और न देता? निकाल! पत्नी ने कहा, अज्ञान को अगर हम समझें, तो कहें, अव्यक्त मोह है। और तुम्हें पता कैसे चला कि मैंने बचाया होगा? मोहम्मद ने कहा, तेरी | मोह को अगर ठीक समझें, तो कहें, व्यक्त अज्ञान है। जब अज्ञान आंखों की चोरी कहती है। तेरा डरापन कहता है। आज तू उतनी व्यक्त होता, तब मोह की तरह फैलता है-व्यक्त अज्ञान, निर्भय नहीं है, जैसी सदा थी। | मैनीफेस्टेड इग्नोरेंस। जब तक भीतर छिपा रहता अज्ञान, तब तक निर्भय सिर्फ अपरिग्रही ही हो सकता है; परिग्रही सदा भयभीत | ठीक; जब वह फूटता और फैलता हमारे चारों तरफ, तब मोह का . होता है। इसलिए परिग्रही के सामने बंदूक लिए हुए पहरेदार खड़ा | वर्तुल बनता है। फिर मेरे मित्र, प्रियजन, पति, पत्नी, पिता, पुत्र, रहता है। वह उसके भय का सबूत है। मकान, धन, दौलत-फैलता चला जाता है। परिग्रही भयभीत होगा। जहां मोह होगा, वहां भय होगा। भय __ और मोह के फैलाव का कोई अंत नहीं है। इनफिनिट है उसका मोहजन्य है। भय मोह का ही फूल है। कांटे जैसा है, लेकिन है मोह | विस्तार। अनंत फैल सकता है। चांद-तारे भी मिल जाएं, तो तृप्त का ही फूल। खिलता मोह में ही है, निकलता मोह में ही है। | नहीं होगा। और आगे भी चांद-तारे हैं, वहां भी फैलना चाहेगा। ध्यान रखें, भय भी तो यही है कि मिट न जाएं। मोह यह है कि | क्यों? इतना अनंत क्यों फैलना चाहता है मोह? इसलिए फैलना बचाएं अपने को; भय यह है कि मिट न जाएं। इसलिए भय मोह | चाहता है कि जहां तक मोह नहीं फैल पाता, वहीं से भय की के सिक्के का दूसरा हिस्सा है। जो आदमी निर्भय होना चाहता है, संभावना है। जो मेरा नहीं है, उसी से डर है। इसलिए सभी को मेरे वह अमोही हुए बिना नहीं हो सकता। अभय अमोह के साथ ही बना लेना चाहता है। जो मकान मेरा नहीं है, वहीं से खतरा है। जो आता है। | जमीन मेरी नहीं है, वहीं से शत्रुता है। जो चांद-तारा मेरा नहीं है, मोहम्मद ने कहा, तेरा डर कहता कि आज मोह से भरा हुआ है। | वहीं से मौत आएगी। तो जहां तक मेरे का फैलाव है, वहां तक मैं तेरा मन। तू आज मेरी आंखों के सामने नहीं देखती। कुछ तूने | | सम्राट हो जाता हूं; उसके बाहर मैं फिर भी भिखारी हूं। इसलिए मेरे छिपाकर रखा है। निकाल ला और उसे बांट दे। बेचारी, पांच रुपए | को फैलाता चला जाता है आदमी। छिपा रखे थे बिस्तर के नीचे. उसने निकाल लिए। मोहम्मद ने कहते हैं, सिकंदर से जब किसी ने कहा-एक बहुत अदभुत कहा, जा सड़क पर, किसी को दे आ। पर उसने कहा, इतनी आधी आदमी ने—महावीर जैसा एक अदभुत आदमी हुआ यूनान में, रात सड़क पर मिलेगा भी कौन! मोहम्मद ने कहा, जिसने मुझे कहा डायोजनीज। डायोजनीज नग्न खड़ा था। सिकंदर से उसने कहा, 216
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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