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गीता दर्शन भाग-2
भीतर थे। हो सकता है, दुख ज्यादा सहने योग्य हों।
आएं। और गठरियां काफी लंबी और बड़ी थीं। अपनी ही गठरी अपरिचित का भी तो आकर्षण होता है। जिसे नहीं जानते, उस भवन में सबसे छोटी मालूम पड़ती थी। उसका भी तो आकर्षण होता है। अपने सुख से भी आदमी ऊब | अपनी गठरी उठाकर फकीर थोड़ा संतृप्त हुआ, उसने चारों तरफ जाता है; दूसरे के दुख में भी आकर्षण होता है। साथ रहते-रहते देखा, लेकिन बड़ा हैरान हुआ, सभी ने अपनी गठरियां वापस उठा अपने सुख से भी ऊब जाता है। सच तो यह है कि सुख जितना ली थीं! पूछा भी लोगों से उसने कि बदल क्यों नहीं लेते? दौड़े तो उबाने वाला, बोर्डम पैदा करने वाला होता है, उतना दुख नहीं होता। | बहुत तेजी से थे। उन्होंने कहा, अपनी ही गठरी छोटी दिखाई पड़ी! दुखी आदमी ऊबे हुए नहीं दिखाई पड़ते; सुखी आदमी ऊबे हुए। चेहरे उखड़ गए। हृदय दिखाई पड़ते हैं, तो ऐसा ही हो जाता है। दिखाई पड़ते हैं-बोर्ड!
दूसरे की तरफ हम दौड़ते हैं, क्योंकि लगता है, दूसरा सुखी है, सोचा कि ठीक है, कोई हर्जा नहीं। गठरियों में, पता नहीं, हम दुखी हैं। कामना का बीज यही है। दूसरे जैसे होना चाहते हैं, किस-किस तरह के नए दुख तो होंगे कम से कम। दुख की क्योंकि लगता है, दूसरा सुखी है, हम दुखी हैं। कामना का बीज बदलाहट भी बड़ी राहत देती है।
यही है। अक्सर हम यही करते रहते हैं, खुद बदलते रहते हैं। एक दुख । अज्ञानी से पूछे, तो वह कहेगा, नहीं; दूसरी जगह सुख है, को छोड़ते हैं, दूसरे को पकड़ लेते हैं। एक को डायवोर्स दिया, इसलिए दौड़ते हैं। ज्ञानी से पूछे, तो वह कहेगा, इसलिए दौड़ते हैं, दूसरे से मैरिज की। एक दुख को छोड़ा, दूसरे से विवाह किया। पर क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हम अपनी जगह कौन हैं? क्या हैं? दुख के बदलने के बीच में जो थोड़ा-सा खाली वक्त मिलता है, | तो जो अपने भीतर डूबे, जो थोड़ा-सा आत्मा को जान ले, वही वह काफी सुख देता है। एक दुख उतारने में, दूसरा चढ़ाने में बीच कामना से मुक्त हो सकता है। अन्यथा नहीं मुक्त हो सकता है। में जो ट्रांजीशन का पीरियड है, वह जो थोड़ी-सी राहत का वक्त | | आत्मा को जाना कि कामना तिरोहित हो जाती है; या कामना है, वह भी काफी सुख देता है।
| तिरोहित हो जाए, तो आत्मा जान ली जाती है। ये एक ही सिक्के सोचा कि चलो, बदल ही लें।
के दो पहलू हैं। भवन में पहुंच गए। फिर दूसरी आवाज गूंजी कि सब अपनी | दूसरी बात और भी कठिन है। कृष्ण कहते हैं, संकल्प भी...। गठरियों को भवन की खूटियों पर टांग दें। सभी ने दौड़कर खंटियों | संकल्प का अर्थ है, विल पावर। संकल्प भी छोड़ दो। पर अपनी गठरियां टांग दीं। सभी तेजी से दौड़े कि कहीं ऐसा न हो | | साधारणतः, अगर कार्लाइल जैसे विचारकों से पूछे, तो वे कहेंगे, कि खूटियां समाप्त हो जाएं; कहीं ऐसा न हो कि अपनी गठरी अपने | | संकल्प तो प्राण है। विल चली जाएगी, विललेस हो जाओगे, हाथ में ही रह जाए। बड़ी तेजी थी। लेकिन खंटियां काफी थीं और संकल्पहीन हो जाओगे, तो इंपोटेंट हो जाओगे, क्लीव हो जाओगे। सबके दुख टंग गए।
कुछ बचेगा ही नहीं तुम्हारे पास। और फिर आवाज गूंजी कि अब जिसे जो गठरी चुननी हो, वह लेकिन कृष्ण कहते हैं, संकल्प से भी...। चुन ले। फकीर भागा तेजी से। लेकिन आप हैरान होंगे, फकीर | | संकल्प का उपयोग ही क्या है? जब तक कामना है, तब तक दूसरे की गठरी उठाने नहीं भागा; अपनी गठरी ही उठाने भागा। | उपयोग है। जब कामना नहीं, तो संकल्प का कोई उपयोग नहीं। क्योंकि जब सिरों से गठरियां उतरी और खंटियों से लटकी और | | जब तक इच्छा पूरी करनी है, तब तक इच्छाशक्ति की जरूरत है। उनके दुख उनके बाहर भी झांकते हुए दिखाई पड़ने लगे, तब वह | | और जब इच्छा ही नहीं है, तो इच्छाशक्ति का क्या करिएगा? वह घबड़ाया कि कोई मेरी गठरी न उठा ले। वह भागा। और उसने | बोझ हो जाएगी। उसे भी छोड़ दो। जल्दी से अपनी गठरी उठाई कि कहीं ऐसा न हो कि कोई अपनी | हमें इच्छाशक्ति की जरूरत है, क्योंकि इच्छाएं पूरी करनी हैं, तो गठरी उठा ले और झंझट में पड़ जाएं।
| पैरों में ताकत चाहिए दौड़ने की। कामना पूरी करनी है, तो शक्ति जब खूटियों पर गठरी टांगी उसने, तब उसे पता चला कि दुख | चाहिए, मंजिल तक पहुंचने की। वही संकल्प है। हैं, तो भी अपने हैं, परिचित हैं। इतने दिन से परिचित रहने की वजह ___ संकल्पहीन की हम निंदा करते हैं, कि तुम कुछ डिसीजन नहीं से आदी भी हो गए हैं। पता नहीं, अपरिचित दुख कौन-सा दुख ले ले पाते, संकल्पहीन हो; तुम कुछ निर्णय नहीं कर पाते, तुम कुछ
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