________________
गीता दर्शन भाग-20
अमर है। मैंने सोचा, इस मुहल्ले में इतने ज्ञानी हैं! कहते हैं, आत्मा हैं। एक तल पर बहुत ऊंचा ज्ञान था और दूसरे तल पर हमारा अमर है! रोने की क्या जरूरत है? क्यों दुख मना रहे हैं? कोई मरता आदमी बहुत नीचे है। उस ऊंचे तल की बातें उसके कानों में पड़ तो है नहीं; शरीर ही मरता है। मैंने उनके चेहरे गौर से देख लिए कि गई हैं। वह वक्त-वक्त उनका उपयोग करता रहता है। वह कहता कभी जरूरत पड़े सलाह-मशविरे की, तो उनके पास चला जाऊंगा। है, सब संसार माया है। इधर कहता चला जाता है, सब संसार माया
फिर एक दिन पता लगा कि जो सज्जन अगुवा होकर समझाते है, और जिस-जिस चीज को माया कहता है, उसके पीछे जी-जान थे, आत्मा अमर है, उनके घर कोई मर गया। तो मैं भागा हुआ लगाकर दौड़ा भी चला जाता है! ये दो तल। पहुंचा। देखा, तो वे रो रहे हैं। मैं बहुत हैरान हुआ। फिर मैंने कहा, इसलिए मैंने जो बात कही, वह दो तल पर ही समझ लेनी उचित थोड़ी चुप्पी साधकर बैलूं। लेकिन हैरानी और बढ़ी। जिनके घर वे है। जब तक आपको पता है कि आप हो, तब तक समझना कि सब समझाने गए थे, वे लोग समझाने आए हुए थे। और कह रहे थे, | | जिम्मेवारी आपकी है। तब तक ऐसा मत करना कि आप भी बने आत्मा अमर है। काहे के लिए रो रहे हैं?
रहो और जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़ दो। ऐसा नहीं चलेगा। अगर अब ये दो तल की बातें हैं। जो आत्मा को अमर जानते हैं, उनकी जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़नी हो, तो आपको भी अपने को दुनिया बहुत अलग है। लेकिन बात उनकी चुरा ली गई है। और जो | | परमात्मा के चरणों में छोड़ देना पड़ेगा। वह अनिवार्य शर्त है। और आत्मा को मरने वाला मानते हैं, जानते हैं भलीभांति कि मरेगी; मरे | | जब तक आप अपने मैं को न छोड़ पाओ, उसके द्वार पर, तब तक या न मरे, उनका जानना यही है कि मरेगी; उनके पास यह चोरी की | | सारी जिम्मेवारी का बोझ अपने सिर पर रखना। वह ईमानदारी है, बात है। इस बात का वहां बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाता है। ज्ञान की | | सिंसियरिटी है। ठीक है फिर। पाप किया है, पुण्य किया है, मैं चर्चा लोग सुनते हैं...।
जिम्मेवार हूं; क्योंकि जो भी किया है, वह मैंने किया है। एक संन्यासी के आश्रम में मैं कुछ दिन मेहमान था। तो वहां वे ___ और अगर ऐसा लगे कि नहीं, सब जिम्मेवारी विराट की है, तो रोज समझाते थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। वह कभी अशुद्ध होती फिर इस मैं को उसके चरणों में रख आना। जिस दिन मैं को उसके ही नहीं। उनके सामने में लोगों को बेठे देखता था। वे कहते, जी चरणों में रख दो, और जिस दिन यह हिम्मत आ जाए कहने की कि महाराज, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैंने उन लोगों से पूछा अकेले मैंने कुछ भी नहीं किया, सब उसने कराया है। वही है, मैं नहीं हूं।' में कि तुम कहते हो, जी, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। वे बोले कि उसका ही फैला हुआ हाथ हूं। फिर उस दिन से आपकी कोई बिलकुल ठीक बात है; आत्मा बिलकुल शुद्ध है।
जिम्मेवारी नहीं है। लेकिन वे जो लोग उनके सामने पगड़ियां बांधकर और कहते लेकिन बड़े मजे की बात है कि उस दिन से आपके जीवन से थे, आत्मा बिलकुल शुद्ध है, वे सब तरह के चोर, सब तरह के बुरा एकदम विलीन हो जाएगा। क्योंकि बुरा घटित नहीं हो सकता ब्लैक मार्केटियर, सब तरह के उपद्रवों में सम्मिलित थे। वे उसी बिना अहंकार के। उस दिन से आपके जीवन में शुभ के फूल ब्लैक मार्केट से वहां मंदिर भी खड़ा करवाते थे। और बैठकर सुनते खिलने शुरू हो जाएंगे; सफेद फूलों से भर जाएगी जिंदगी। क्योंकि थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। सदा शुद्ध है। वह कभी पाप करती ही | जहां अहंकार नहीं है, वहां शुभ्र फूल अपने आप खिलने शुरू हो नहीं; कभी पाप उससे होता ही नहीं। आत्मा ने कभी कुछ किया ही जाते हैं। नहीं। उनके मन को बड़ी राहत और कंसोलेशन मिलता होगा कि अपन ने ब्लैक मार्केट नहीं किया। अपन ने कोई चोरी नहीं की। आत्मा शुद्ध-बुद्ध है, बड़े प्रसन्न घर लौटे। वे प्रसन्न घर लौट रहे चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। हैं, वे यहां सुनने सिर्फ यही आ रहे हैं कि आत्मा शुद्ध है अर्थात तस्य कर्तारमपि मां विख्यकर्तारमव्ययम् ।। १३ ।। अशुद्ध तो हो ही नहीं सकती। अब कितनी ही अशुद्धि करो, अशुद्ध | तथा हे अर्जुन! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, होने का कोई डर नहीं है। यह ज्ञान की बात और अज्ञान की दुनिया वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं। उनके कर्ता को भी, में जाकर बड़ा उपद्रव खड़ा करती है।
मुझ अविनाशी परमेश्वर को, तू अकर्ता ही जान । भारत के नैतिक पतन का कारण यह है, यहां दो तल की बातें
56