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अकंप चेतना
अप्रीतिकर हटाता; न दुखद कहता कि हटो, न सुखद कहता है कि करेंगे। कांटे को निकालेंगे; मलहम-पट्टी करेंगे। लेकिन चेतना आओ और जब चेतना पर कोई भी बाहर के आंदोलन प्रभाव | इससे विचलित नहीं होती है। चेतना ठहरी ही रह जाती है! नहीं डालते हैं और चेतना बिलकल ठहरकर खडी हो जाती है. उस बद्ध या महावीर की मर्ति देखते हैं बैठी हुई। जैसे दी
ए की ज्योति खड़ी हुई चेतना में ही व्यक्ति सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा में थिर | | ठहरी हो। इसलिए बुद्ध और महावीर और सारे जगत के उन सारे होता है।
लोगों की, जिनकी चेतना ठहर गई, हमने पत्थर में मूर्तियां बनाईं। इसे ऐसा समझ लें, डोलती हुई चेतना, उसी तरह है, जैसे कभी अकारण नहीं! पत्थर में बनाने का कारण था। पत्थर जितना ठहरा आपके रेडिओ का कांटा ढीला हो गया हो। आप घुमाते हों उसे, हुआ है, इतनी और कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। तूफान आते हैं; वह कोई स्टेशन पर टयून नहीं हो पाता हो; कहीं भी ठहर न पाता | जिस वृक्ष के नीचे मूर्ति रखी है बुद्ध की, वृक्ष हिल जाता है, कंप हो। हिलता हो, डुलता हो; दो-चार स्टेशन साथ-साथ पकड़ता जाता है। जड़ें कंप जाती हैं, पत्ते कंप जाते हैं, लेकिन मूर्ति है कि हो। कुछ भी समझ-बूझ न पड़ता हो कि क्या हो रहा है। ठहरी रहती है। वह जो उनके भीतर थिर हो गई थी चेतना, उस
चेतना जब तक डोलती है सुख और दुख के धक्कों में, झोंकों | | थिरता के समानांतर खोजने के लिए हमने पत्थर खोजा। वहां सब में, तब तक कभी भी टघूनिंग नहीं हो पाती परमात्मा से। जैसे ही | ठहरा हुआ है। खड़ी हो जाती है थिर, वैसे ही परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है। । अप्रीतिकर, प्रीतिकर के बीच ऐसे जो ठहर जाता है, वह पुरुष
परमात्मा और व्यक्ति के बीच संबंध किसी भी क्षण हो सकता | सच्चिदानंद के साथ एकलीनता, एकलयता को उपलब्ध होता है। है, लेकिन व्यक्ति की चेतना के ठहरने की अनिवार्य शर्त है। परमात्मा तो सदा ठहरा हुआ है। हम भी ठहर जाएं, तो मिलन हो जाए। उस मिलन में ही सच्चिदानंद का अनुभव है। और इस मिलन | प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में कहा गया है कि के बाद कोई विरह नहीं है। सुख मिलेंगे, छूटेंगे। दुख मिलेंगे, प्रिय और अप्रिय अनुभवों में उद्वेगरहित, स्थिर बुद्धि छूटेंगे। परमात्मा मिला, तो फिर नहीं छूटता है। आनंद मिला, तो व संशयरहित ब्रह्मवेत्ता पुरुष परमात्मा में एकीभाव से फिर नहीं छूटता है।
नित्य स्थित है। इसमें एक शब्द है, संशयरहित। तो उसी की तलाश है सारे जीवन, उसी की खोज है। वह मिल प्रीतिकर और अप्रीतिकर अनुभवों में समता रखने जाए, जो मिलकर नहीं छूटता है। वह पा लिया जाए, जिसे पाने के | वाला पुरुष कैसे संशयरहित होता है, इस पर कुछ बाद कुछ पाने को शेष नहीं रहता है। उसी की जन्मों-जन्मों की यात्रा कहें। है। लेकिन हर बार चूक जाते हैं। वह डोलती हुई चेतना, थिर नहीं हो पाती। और वह थिर क्यों नहीं हो पाती? प्रीतिकर और अप्रीतिकर में हम भटकते रहते हैं।
- शय भी चेतना के कंपन का नाम है। संशय की बात इसलिए कृष्ण कहते हैं, जागो! प्रीतिकर, अप्रीतिकर दोनों के | रा भी कृष्ण ने कही-संशयरहित की जानकर। बीच खड़े हो जाओ, मौन।
चेतना दो तरह से कंपती है। या तो भाव के द्वार से, निश्चित ही कांटा चुभेगा, तो अप्रीतिकर लगेगा। कृष्ण को भी इमोशन के द्वार से; या बुद्धि के द्वार से, इंटलेक्ट के द्वार से। चेतना चुभेगा, तो भी लगेगा। फूल हाथ पर आएगा, तो अप्रीतिकर नहीं | | के दो द्वार हैं, भाव या विचार। पहली बात कृष्ण ने कही कि लगेगा। यह मत सोचना कि कृष्ण को हम कांटा गड़ाएंगे, तो खून | | प्रीतिकर और अप्रीतिकर के बीच थिर है जो। यह भाव के द्वार की नहीं बहेगा। कि कृष्ण को कांटा गड़ाएंगे, तो वे पत्थर हैं, उन्हें पता बात है। भावना में न कंपे कोई। प्रीतिकर हो या अप्रीतिकर, यह नहीं चलेगा। पता पूरा चलेगा। शरीर पूरी प्रतिक्रिया करेगा। शरीर हृदय की बात है। हृदय को प्रीतिकर लगता है, तो भी कंपन आ में पीड़ा होगी, चुभन होगी। शरीर खबर भेजेगा मस्तिष्क को कि | जाता; अप्रीतिकर लगता है, तो भी कंपन आ जाता। हृदय के द्वार कांटा चुभता है, खून बहता है। लेकिन चेतना डांवाडोल नहीं होगी। से थिर हो जाए। चेतना कहेगी, ठीक है। आते हैं; जो किया जा सकता है, वह दूसरी बात भी कही कि संशयरहित हो। संशय, बुद्धि का कंपन
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