SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ गीता दर्शन भाग-26 हिस्से से इंद्रियां प्रीतिकर अनुभव करती हैं, उससे जोड़ देते हैं। | न अब उसे चूहे पकड़ने में रस आता है; न अब उसे खाने में रस बाहर बटन दबा देते हैं, वहां बिजली की धारा उस केंद्र को आता है; न उसे अब बिल्लियों से प्रेम बसाने में रस आता है। अब संचालित करने लगती है। आदमी बड़ा मुग्ध हो जाता है-मुग्ध। तो वह उसी कमरे में बार-बार आ जाती है, जहां उसको बटन दिया दुखद हिस्से को पकड़ा देते हैं तार को, आदमी बड़ा दुखी हो जाता | गया था और जहां उसने बटन दबाया था। वह पागल हो गई है। है। आदमी ही नहीं जानवर भी! अब उसकी स्मृति भारी है। अब उतना तीव्र रस उसको किसी बात अभी एक बिल्ली पर वे प्रयोग कर रहे थे। और उस बिल्ली को | में नहीं आता है। विक्षिप्त है। तार लगा दिया और उसके सामने बटन भी उसे सिखा दी दबानी। __ मैंने सुना है कि एक मनोवैज्ञानिक दो वर्षों से एक आदमी का भीतर सुखद जहां अनुभव होती है बिजली की दौड़, उसमें तार लगा | इलाज कर रहा है। फिर एक दिन हजारों रुपए के खर्च, इलाज और दिया और बिल्ली को बटन दबाना भी सिखा दिया। बहुत हैरान हो | चिकित्सा और मनोविश्लेषण के बाद उसने उस आदमी को कहा कि गए वे। बिल्ली ने चौबीस घंटे खाना-पीना-सोना सब बंद कर | अब आप बिलकुल ठीक हो गए। धन्यवाद दो परमात्मा को कि आप दिया। बस, वह बटन ही दबाती रही! उसने चौबीस घंटे में छ: | अब बिलकुल ठीक हो गए हैं। अब आपको कभी भी महान होने का हजार बार बटन दबाया। और मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अगर | | जो पागलपन पहले पकड़ा था, वह अब कभी भी नहीं पकड़ेगा। उस हम उसे अलग न कर देते, तो वह मर जाती, लेकिन बटन दबाना | आदमी को पंडित जवाहरलाल नेहरू होने का भ्रम था। उस बंद न करती। खाने-पीने की फुर्सत न रही उसे! मनोवैज्ञानिक ने कहा, अब तुम्हें इस तरह के ग्रॅडयोर, इस तरह के जब आपको किसी से प्रीतिकर संबंध मालूम पड़ता है, कोई | | महिमाशाली होने के पागलपन की बातें कभी नहीं पकड़ेंगी। प्रियजन, तो अगर आप मनोवैज्ञानिक से अब पूछे, तो वह कहेगा, उस बीमार ने कहा, धन्यवाद प्रभु का और धन्यवाद तुम्हारा। जब आप अपनी प्रेयसी से मिलते हैं या प्रेमी से मिलते हैं, तो | तुमने बड़ी मेहनत ली। बड़ी कृपा है तुम्हारी कि मैं ठीक हो गया। आपके भीतर उसके शरीर से वह बिजली प्रवाहित होने लगती है, | | क्या तुम्हारा फोन उपयोग कर सकता हूं? चिकित्सक ने पूछा, जो आपके विशेष केंद्रों को स्पर्श करती है। और कुछ नहीं होता। | किसको फोन करना है? उसने कहा, मैं जरा अपनी बेटी इंदिरा और आप उस बिल्ली से बहुत अच्छी हालत में नहीं हैं। और अगर गांधी को खबर दूं कि मैं ठीक हो गया है। चिकित्सक तो दंग! उसने बार-बार मन होता है कि प्रेयसी से मिलें, तो जो बिल्ली का तर्क | कहा, दो साल पर पानी फेर दिया तुमने! उस आदमी ने कहा, तुम्हें है, वही तर्क आपका है कि बार-बार बटन को दबाएं! | पता नहीं: कितना सखद है पंडित जवाहरलाल नेहरू होना। पागल आज नहीं कल, जिस दिन यह पूरे शरीर का फिजियोलाजिकल | होना बेहतर! पंडित नेहरू होना छोड़ना बेहतर नहीं। मैं पागल रह और केमिकल, यह जो हमारी व्यवस्था है शारीरिक और | सकता हूं, इतना सुखद है! रासायनिक, इसका पूरा राज पता चल जाएगा, तो आप अपने खीसे जो हमारा सुख है, हम उसके पीछे सभी पागल हो जाते हैं। दुख में एक बटन रखकर दबाते रहना बैटरी को। उससे आपको सुखद | | भी हमें पागल करता है, क्योंकि उससे हम भागते रहते हैं। सुख भी और दुखद अनुभव होते रहेंगे। पागल करता है, क्योंकि उसकी हम मांग करते रहते हैं। और जब इससे साफ होता है कि जिन लोगों ने आध्यात्मिक गहराइयों में | | चेतना इस तरह प्रीतिकर-अप्रीतिकर के बीच डांवाडोल होती रहती जाकर यह कहा कि वही आदमी वास्तविक आनंद को उपलब्ध | है, तो थिर कैसे होगी? ठहरेगी कैसे? खड़ी कैसे होगी? फिर तो होगा, जो ख और दुख दोनों के बीच थिर हो जाता है। वही उसकी हालत ऐसी होती है, जैसे दीया तुफान और आंधी में झोंके आदमी शरीर के इस रासायनिक, शारीरिक, वैद्युतिक प्रवाह के | लेता रहता है—कभी बाएं, कभी दाएं। कभी ठहर नहीं पाता। सुख-दुख के भ्रम के ऊपर उठ पाता है। तटस्थ हो जाने की जरूरत __ कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह उस आदमी की बात है। दोनों के बीच एक-सा हो जाने की जरूरत है। है, जिसकी चेतना का दीया, जिसकी चेतना की ज्योति ठहर गई। वह बिल्ली पागल हो गई। चौबीस घंटे बाद उसका स्विच तो | | ऐसे, जैसे बंद कमरे में जहां हवा के कोई झोंके न आते हों। ठहर अलग कर दिया गया, इलेक्ट्रोड अलग कर दिया गया, लेकिन वह गई ज्योति, रुक गई। पागल हो गई। उस दिन से उसको फिर दुनिया में कोई रस न रहा। जिस दिन चेतना सम हो जाती है-न प्रीतिकर खींचता, न |388
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy