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________________ गीता दर्शन भाग-28 तो कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण शुद्ध है जिसका! किया है, सोशियलाइज किया है। वेश्या के पास जाते वक्त जितना अंतःकरण अशुद्ध होगा, आत्मा उतनी निर्बल होगी। | निर्बलता मालूम पड़ती है, क्योंकि वह पाप सोशियलाइज नहीं है, आत्मा की निर्बलता हमेशा अशुद्धि से आती है। आत्मा की | | इंडिविजुअल है। पूरा समाज उसमें सहयोगी नहीं है, आप अकेले सबलता शद्धि से आती है। वह जितनी प्योरिफाइड. जितनी पवित्र जा रहे हैं। हुई चेतना है, उतनी ही सबल हो जाती है। आत्मा के जगत में | | लेकिन जो आदमी गहरे में समझेगा, उसे समझ लेना चाहिए कि पवित्रता ही बल है और अपवित्रता निर्बलता है। | जिस क्षण भी मैं अपने सुख के लिए किसी के भी पास जाता इसलिए जब भी कोई अपवित्र काम आप करेंगे, तत्काल पाएंगे, | | हूं-चाहे वह पत्नी हो, चाहे वह पति हो, चाहे वह मित्र हो, चाहे आत्मा निर्बल हो गई। जरा चोरी करने का विचार करके सोचें। | | वह वेश्या हो-जब भी मैं किसी और के द्वार पर भिक्षा का पात्र करना तो दूर, थोड़ा सोचें कि पड़ोस में रखी हुई आदमी की चीज | लेकर खड़ा होता हूं, तभी आत्मा अशुद्ध हो जाती है। न दिखाई पड़ती उठा लें। अचानक भीतर पाएंगे कि कोई चीज निर्बल हो गई, कोई | हो, लंबी आदत से अंधापन पैदा हो जाता है। बहुत बार एक ही बात चीज नीचे गिर गई। सोचें भर कि चोरी कर लूं, और भीतर कोई | को दोहराने से, करने से, मजबूत यांत्रिक व्यवस्था हो जाती है। चीज निर्बल हो गई। सोचें कि किसी को दान दे दूं, और भीतर कोई __ चोर भी रोज-रोज थोड़े ही अनुभव करता है कि आत्मा पाप में चीज सबल हो गई। सोचें मांगने की, और भीतर निर्बलता आ जाती | पड़ रही है। नियमित चोरी करने वाला धीरे-धीरे चोरी में इतना गहरा है। सोचें देने की, और भीतर कोई सिर उठाकर खड़ा हो जाता है। | हो जाता है कि अंतःकरण की आवाज फिर सुनाई नहीं पड़ती है। जहां अशुद्धि है, वहां निर्बलता है। जहां शुद्धि है, वहां सबलता | | फिर तो किसी दिन चोरी करने न जाए, तो लगता है कि कुछ गलती है। और निर्बल और सबल होने को आप अशुद्धि और शुद्धि का | | हो रही है। मापदंड समझें। जब मन भीतर निर्बल होने लगे, तो समझें कि | लेकिन आत्मा निरंतर आवाज देती है। और इसलिए दूसरी बात आस-पास जरूर कोई अशुद्धि घटित हो रही है। और जब भीतर | आपसे कह दूं कि जब भी आप कोई पहला काम कर रहे हों जीवन सबल मालूम पड़ें प्राण, तब समझें कि जरूर कोई शुद्धि की यात्रा | | में, तब बहुत गौर से आत्मा से पूछ लेना, उस वक्त आवाज बहुत पर आप निकल गए हैं। ये दोनों बंधी हुई चीजें हैं। साफ होती है। जितना ज्यादा करते चले जाएंगे, उतनी आवाज धीमी इसलिए कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण जिसका शुद्ध है! अंतःकरण | | होती चली जाएगी। आदतें मजबूत हो जाएंगी। अशुद्धि ही शुद्धि जिसका शुद्ध है...। | मालम पडने लगेगी। गंदगी ही सगंध मालम पडने लगेगी। यह अंतःकरण की शुद्धि और अशुद्धि को ठीक से समझ लेना | ___ आदत दूसरा स्वभाव है। जोर से उसकी पर्त बन जाती है, फिर जरूरी है। | भीतर की आवाज आनी बंद हो जाती है। फिर खयाल में नहीं आता ___ अंतःकरण कब होता है अशुद्ध ? जब भी—जब भी हम | कि भीतर की कोई आवाज है। हमने उसको बंद कर दिया, और किसी दूसरे पर निर्भर होते हैं, किसी भी सुख के लिए। किसी भी हमने इतनी बार ठुकराया। अब भी आत्मा बोलती है, लेकिन रोज सुख के लिए जब भी हम किसी दूसरे पर निर्भर होते हैं, तभी धीमी हो जाती है, और धीमी आवाज होती चली जाती है। या हम अंतःकरण अशुद्ध हो जाता है। दूसरे पर निर्भरता अशुद्धि है। और इतने बहरे होते चले जाते हैं आदत से, कि वह आवाज सुनाई नहीं दूसरे पर निर्भरताएं सभी बहुत गहरे अर्थ में पाप हैं। लेकिन हम | पड़ती है। कुछ पापों को सोशियलाइज किए हुए हैं, उनको हमने समाजीकृत | | इसलिए पहली बार जब भी जो आप कर रहे हों. करने के पहले किया हुआ है। इसलिए अंतःकरण को पता नहीं चलता। भीतर देख लेना, निर्बल होते हैं या सबल। जिस चीज से भी अगर एक आदमी सोचता है कि आज मैं वेश्या के घर जाऊं, सबलता आती हो भीतर, उस चीज को समझना कि वह आत्मा के तो मन निर्बल होता मालूम पड़ता है कि पाप कर रहा हूं। लेकिन | | पक्ष में है। और जिस चीज से निर्बलता आती हो, समझना कि वह सोचता है, अपनी पत्नी के पास जाऊं, तो मन निर्बल होता नहीं विपक्ष में है। मालूम पड़ता है। पत्नी के पास जाते समय मन निर्बल मालूम नहीं| | दूसरे पर निर्भर सभी सुख दुर्बल कर जाते हैं। असल में दूसरे पड़ता है, क्योंकि पत्नी और पति के संबंध को हमने समाजीकृत के द्वार पर खड़े होना भिखारी होना है। वह भीख कितनी ही सूक्ष्म 1376
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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