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________________ यज्ञ का रहस्य उपयोग लेता है। असंयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपयोग कम लेता, भोग ज्यादा लेता। आंख से देखना उपयोग है। आंख से भोगना, स्पर्श करना, उपयोग नहीं है; भोग है। भोग बंधन है, उपयोग बंधन नहीं है। इस स्पर्श की सूक्ष्म व्यवस्था को स्मरणपूर्वक देखने से व्यवस्था क्रमशः टूटती चली जाती है। लेकिन आपने शायद ही सोचा होगा कि संयम का यह अर्थ है ! संयम का तो यह अर्थ है, स्त्री दिखाई पड़े, तो आंख बंद कर लो। संयम का तो यह अर्थ है कि जहां स्त्रियां हों, वहां रहो ही मत । संयम का तो यह अर्थ है, देखो मत, सुनो मत छुओ मत। ऐसा हमने संयम का अर्थ लिया हुआ है। यह संयम का अर्थ नहीं है। इससे संयम फलित नहीं होता, सिर्फ दमन, सप्रेशन फलित होता है । और दमन संयम नहीं है। दमन भीतर उबलता हुआ असंयम है। बाहर नहीं जा पाता, भीतर उबलता है। और ध्यान रहे, केटली से भाप बाहर चली जाए, यही उचित है, बजाय भीतर रहे। क्योंकि तब केटली फूटेगी और एक्सप्लोजन होगा । दो-चार की जान भी लेगी। इसलिए साधारण असंयमी आदमी इतना खतरनाक नहीं होता, जितना दमित असंयमी आदमी खतरनाक होता है। क्योंकि उसके भीतर बहुत जहर इकट्ठा हो जाता है। जब भी फूटता है, तो ज्यादा दूर तक नुकसान पहुंचाता है। और जब भी फूटता है, तो फिर पूरी तरह फूटता है । सप्रेशन संयम नहीं है; दमन संयम नहीं है। संयम जागरण है— होश, रिमेंबरिंग, स्मृति। इसको प्रयोग करके देखें | प्रियजन है आपका कोई | हाथ हाथ में ले लेते हैं उसका प्रेम से। तब हाथ हाथ में रखें, आंख बंद कर लें, स्मरण करें, स्पर्श हो रहा कि सिर्फ छू रहे हैं। बारीक है फासला, पर खयाल में आ जाएगा; दिखाई पड़ जाएगा। कभी लगेगा, स्पर्श कर रहे हैं। कभी लगेगा, छू रहे हैं। कभी लगेगा, दोनों काम एक साथ चल रहे हैं। और ध्यान रहे, अगर सिर्फ छू रहे हैं, तो थोड़ी ही देर में पसीने के सिवाय अनुभव में और कुछ भी नहीं आएगा। अगर स्पर्श कर रहे हैं, तो कविता अनुभव में आएगी; पसीने का पता ही नहीं चलेगा। अगर प्रियजन का हाथ हाथ में लेकर बैठे हैं और अगर सिर्फ छू रहे हैं, तो थोड़ी ही देर में ऊब जाएंगे। और मन होगा कि कब हाथ हाथ छूटे अब । लेकिन अगर स्पर्श भी कर रहे हैं, तो ऐसा होगा कि कोई हाथ न छुड़ा दे। अब यह हाथ हाथ में ही रहा आए। अब यह हाथ हाथ से जुड़ ही जाए। कविता पैदा होगी, स्वप्न पैदा होगा, रोमांटिक, रोमांच का जगत शुरू होगा। इसे देखते रहें और प्रयोग करते रहें, तो पहली घटना घट सकती | है संयम की, अर्थात विषयों तक इंद्रियों का रस तिरोहित हो जाता है। विषय तक इंद्रियां जाती हैं उपयोग के लिए, भोग के लिए नहीं । सेतु टूट गया। तब जो व्यक्ति है, वह संयमी है। ऐसा संयमी व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, उपलब्ध हो जाता है। दूसरा, कृष्ण कह रहे हैं, भोग करते हुए भी, भोग में होते हुए भी इंद्रियों को विषयों से बिना तोड़े हुए, छूना ही नहीं, स्पर्श करते हुए भी, ज्ञानीजन बाहर हो जाते हैं। उसकी प्रक्रिया और भी सूक्ष्म होगी, क्योंकि वह एक प्रतिशत के लिए है। यह अभी जो मैंने कहा, निन्यानबे प्रतिशत के लिए है। यह भी कठिन है। वह और भी कठिनतर है। स्पर्श करते हुए, इंद्रियों का उपयोग ही नहीं, भोग करते हुए। फिर क्या करें ? फिर कैसे सेतु टूटेगा ? भोग करते हुए भी, पूरा भोग करते हुए भी, जो भोग के क्षण में जाग सकता है; भोग के क्षण में... ! भोजन कर रहे हैं। स्वाद की तरंगें बह रही हैं। स्वाद में उतरा रहे, डूब रहे। ठीक उस क्षण में स्वाद के प्रति जो जाग जाए, देखे कि डूब रहा, उतरा रहा; भागता नहीं, तोड़ता नहीं; डूब रहा, उतरा रहा, स्वाद ले रहा, पूरी तरह ले रहा। पूरी तरह लूं और होश से भर जाऊं, तो अचानक दिखाई पड़ेगा, मैं भोक्ता नहीं हूं; भोग है; मैं द्रष्टा हूं। भोग है; मैं द्रष्टा हूं, भोक्ता नहीं हूं। द्रष्टा का भोक्ता - भाव गिर जाता है। तो वह भोगता रहे! संगीत को सुनेगा; कान गदगद होंगे, आनंदातिरेक में नाचने लगेंगे। कान भीतर तरंगें उठकर सुख देने लगेंगी। कान पूरी तरह रसमग्न हो जाएगा । स्पर्श करेगा ध्वनि को, संगीत को । लेकिन भीतर जो | चेतना है, वह जागकर देखेगी : ऐसा हो रहा है; दिस इज़ हैपनिंग | और ऐसे स्मरण से कि ऐसा हो रहा है, तत्काल कोई गहरा सेतु टूट जाता है; जहां से भीतर की चेतना भोक्ता नहीं रह जाती, सिर्फ द्रष्टा रह जाती है। 137 इस मार्ग से भी ज्ञानीजन उस परात्पर सत्य को उपलब्ध हो जाते । कृष्ण ने फिर ये दो बातें कहीं। ये अलग-अलग जरा भी नहीं हैं। व्यक्ति की बात है, उसे क्या निकटतम सुलभ मालूम पड़ सकता है। दूसरा कठिन सिर्फ इसलिए है कि डर यही है कि हम अपने को धोखा दे लें । वही उसकी कठिनाई है। डिसेप्शन का डर है।
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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