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________________ मृत्यु का साक्षात असली ज्ञान की खोज की कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती। अज्ञानी | हैं कि सब मरते हैं, तो मैं भी मरूंगा। लेकिन कभी किसी मरने वाले आदमी के पास सर्टिफिकेट नहीं होता; वह ज्ञान की खोज करता है। | से पूछा कि मर गए? लेकिन वह उत्तर नहीं देता। इसलिए मान लेते तथाकथित ज्ञानी के पास सर्टिफिकेट होता है; वह मान लेता है कि हैं कि हां में उत्तर देता होगा। मौन को सम्मति का लक्षण समझने मैं ज्ञानी हूं। मेरे पास यूनिवर्सिटी की डिग्री है। और क्या चाहिए? की बात सभी जगह ठीक नहीं है। मरे हुए आदमी से पूछो, मर ज्ञान तो सिर्फ एक है, स्वयं का ज्ञान। बाकी सब सूचनाएं हैं, | गए? अगर वह उत्तर दे, तो समझना मरा नहीं; और अगर मौन रह इनफर्मेशनस हैं, नालेज नहीं। बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं। जाए, तो हम समझ लेते हैं कि मर गया! बट्रेंड रसेल ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैं, नालेज और | लेकिन मौन सम्मति का लक्षण नहीं है। नहीं बोल पा रहा है, एक्वेनटेंस-ज्ञान और परिचय। ज्ञान तो सिर्फ एक ही चीज का हो इसलिए मर गया, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है। सकता है, जो मैं हूं; बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं है। अपने से दक्षिण के ब्रह्मयोगी, एक साधु ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और पृथक जिसे भी मैं जानता हूं, वह सिर्फ एक्वेनटेंस, परिचय है। जान कलकत्ता तथा रंगून यूनिवर्सिटी में मरने के प्रयोग करके दिखाए थे। तो सिर्फ अपने को सकता हूं; क्योंकि अपने से जो भिन्न है, उसके | वे दस मिनट के लिए मर जाते थे। कलकत्ता यूनिवर्सिटी में दस भीतर मेरा प्रवेश नहीं हो सकता, सिर्फ बाहर घूम सकता हूं। डाक्टर मौजूद थे, जिन्होंने सर्टिफिकेट लिखा कि यह आदमी मर परिचय ही कर सकता हूं, ऊपर-ऊपर से जान सकता हूं, भीतर तो गया है; क्योंकि मृत्यु के जो भी लक्षण हैं चिकित्सा-शास्त्र के पास, नहीं जा सकता। भीतर तो सिर्फ एक ही जगह जा सकता हूं, जहां पूरे हो गए। श्वास नहीं; बोल नहीं सकता; खून में गति नहीं रही; मैं हूं। ताप गिर गया; नाड़ी बंद हो गई; हृदय की धड़कन नहीं है। सब यह बहुत मजे की बात है, अपना परिचय नहीं होता और दूसरे | सूक्ष्मतम यंत्रों ने कह दिया कि आदमी मर गया। उन दस ने लिखा, का ज्ञान नहीं होता। दूसरे का परिचय होता है, अपना ज्ञान होता है। दस्तखत किए, क्योंकि ब्रह्मयोगी कहकर गए थे कि दस्तखत करके अपना परिचय नहीं होता; क्योंकि अपने बाहर घूमने का उपाय नहीं सर्टिफिकेट, डेथ सर्टिफिकेट दे देना कि मैं मर गया। है। दसरे का ज्ञान नहीं होता. क्योंकि दसरे के भीतर प्रवेश नहीं है। फिर दस मिनट बाद सब वापस लौट आया। श्वास फिर चली लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं! हम दूसरे का ज्ञान ले लेते हैं और धड़कन फिर हुई; खून फिर बहा; उस आदमी ने आंख भी खोलीं; अपना परिचय कर लेते हैं। हम अपना परिचय कर लेते हैं, जो कि वह बोलने भी लगा; उठकर बैठ गया। उसने कहा, अब आपके हो नहीं सकता। और हम दूसरे के ज्ञान को ज्ञान समझ लेते हैं, जो सर्टिफिकेट के संबंध में मैं क्या मानूं? आप बड़े जालसाज हैं। जिंदा कि हो नहीं सकता। यह अज्ञान की स्थिति है। अज्ञान में मृत्यु है। आदमी को मरने का सर्टिफिकेट देते हैं। उन्होंने कहा, जहां तक हम जब आप एक व्यक्ति को बुझते देखते हैं—बुझते, मरते नहीं। जानते थे, मौत घट गई थी। इसके आगे हम नहीं जानते। इसलिए बुद्ध ने ठीक शब्द का उपयोग किया है। वह शब्द है, | लेकिन उनमें से एक डाक्टर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि निर्वाण। निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझना। बस, दीया बुझ जाता उस दिन से मैं फिर मृत्यु का सर्टिफिकेट नहीं दे सका, किसी को है; कोई मरता नहीं। दिखाई पड़ती थी ज्योति, अब नहीं दिखाई | | भी। क्योंकि उस दिन जो मैंने देखा, उससे साफ हो गया कि मृत्यु पड़ती। देखने के क्षेत्र से विदा हो जाती है, अदृश्य में लीन हो जाती | के लक्षण सिर्फ विदा होने के लक्षण हैं। और चूंकि आदमी लौटना है। फिर प्रकट हो सकती है, फिर लीन हो सकती है। यह | । नहीं जानता है, इसलिए हमारे सर्टिफिकेट सही हैं, वरना सब गलत प्रकट-अप्रकट होने का क्रम अनंत चल सकता है। जब तक कि हो जाएं। वह ब्रह्मयोगी लौटना जानता है। ज्योति पहचान न ले कि प्रकट में भी मैं वही हूं, अप्रकट में भी मैं | तीन बार, लंदन, कलकत्ता और रंगून विश्वविद्यालय में उन्होंने वही हूं; न मैं प्रकट होती, न मैं अप्रकट होती, सिर्फ रूप प्रकट होता | मरकर दिखाया और तीनों जगह, पृथ्वी पर पहला आदमी है, जिसने और अप्रकट होता। वह जो रूप के भीतर छिपा हुआ सत्व है, वह तीन दफे मृत्यु का सर्टिफिकेट लिया! न प्रकट में प्रकट होता, न अप्रकट में अप्रकट होता; न जीवन में | क्या, हुआ क्या? जब ब्रह्मयोगी से चिकित्सक पूछते कि हुआ जीवित होता, न मृत्यु में मरता। तब अमृत का अनुभव है। । क्या, किया क्या? तो वह कहते, मैं सिर्फ सिकोड़ लेता हूं अपने हम दूसरों को मरते देखकर, बुझते देखकर, हिसाब लगा लेते | जीवन को। जैसे कि सूरज अपनी किरणों को सिकोड़ ले; जैसे कि 189]
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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