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________________ संन्यास की घोषणा अर्जुन कहता है, मुझे तो तैयार—आप जानते ही हैं, वही कह | है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। ये उलझाव कहां से आते हैं? हम दें, जो ठीक है। मुझे उलझाएं मत। मैं वैसे ही बड़े संभ्रम में, वैसे सब सुलझे हुए लोग! ये इतने उलझाव इस जमीन पर पैदा कैसे होते ही बड़े संशय में हूं, वैसे ही बहुत अनिश्चय में डूबा हुआ हूं। इतनी | हैं? यदि हम सब सुलझे हुए हैं, तो जगत एक शांत और एक आनंद बातें न करें कि मैं और उलझ जाऊं। मैं कनफ्यज्ड हैं। से भरी हुई जगह होनी चाहिए-स्वर्ग: लेकिन जगत है एक नर्क। अर्जुन जानता है कि उलझा हुआ है। लेकिन उलझे हुए मन को | हम सब उलझे हुए हैं। और उलझाव और भी भयंकर है, क्योंकि सुलझा हुआ सत्य भी मिल जाए, तो उसे भी उलझा लेता है। | प्रत्येक उलझा हुआ आदमी समझता है कि मैं सुलझा हुआ हूं। हर सुंदरतम व्यक्ति को भी हम विकृत आईने के सामने खड़ा कर दें, पागल समझता है कि पागल नहीं है। पागलखानों में ऐसा आदमी तो आईना तत्काल उसे विकृत कर लेता है। श्रेष्ठतम चित्र को भी | मिलना मुश्किल है, जो समझता हो कि मैं पागल हूं। पागलखाने हम, आंखें कमजोर हों, बिगड़ गई हों, ऐसे आदमी के सामने रख | के बाहर मिल भी जाए; पागलखाने के भीतर नहीं मिल सकता। दें, तो भी आंखें उस श्रेष्ठतम चित्र को कुरूप कर लेती हैं। तो अर्जुन को यह भी दिखा देना जरूरी है कि वह कितना उलझा निश्चित ही कृष्ण सीधे निष्कर्ष की बात कह सकते हैं, लेकिन | | हुआ है। कृष्ण की अब तक की बातचीत से अर्जुन को एक बात उलझा हुआ अर्जुन समझ कैसे पाएगा! अर्जुन उलझा हो, तो | | तो कम से कम दिखाई पड़नी शुरू हो गई कि वह उलझा हुआ है। सुलझी हुई बात को भी उलझा लेगा। इसलिए कृष्ण को प्रतीक्षा | शुरू में जब उसने बोलना शुरू किया था, तो ऐसा लगता था कि करनी पड़ेगी। अर्जुन का उलझाव हल हो, तो ही सुलझे हुए सत्यों | | वह जानकर बोल रहा है। धर्म और शास्त्र और नीति और परंपरा, को सुनने की क्षमता आ सकती है। | इन सब की बात कर रहा था। ऐसा लगता था कि वह जानकर बोल हम वही समझ पाते हैं, जो हम समझ सकते हैं। हम अपने से | रहा है। अज्ञानी आदमी जितने जानते हुए बोलते मालूम पड़ते हैं, ज्यादा कभी कुछ नहीं समझ पाते हैं। और हम वही अर्थ निकाल उतने ज्ञानी कभी बोलते हुए मालूम नहीं पड़ते हैं। लेते हैं, जो हमारे भीतर पड़ा है। हम वही अर्थ नहीं निकाल पाते ___ बर्दैड रसेल ने कहीं कहा है कि जितना कम जानने वाला आदमी हैं, जो कृष्ण जैसा व्यक्ति बोलता है। हो, उतनी दृढ़ता से बोल सकता है; उतना डाग्मैटिक हो सकता है। अर्जुन के साथ कृष्ण की वार्ता सीधी नहीं है, बहुत उलझी और जितना जानने वाला आदमी हो, उतना हेजीटेट करता है; झिझकता पगडंडियों से भरी है, बहुत गोल चक्रों में घूमती हुई है। इस सारी है। क्योंकि जितना ज्यादा जानता है, उतना ही पाता है कि जीवन गीता की चर्चा से कष्ण अर्जन को सलझाने की कोशिश कर रहे हैं। अति दरूह है. गहन पहेली है। जितना जानता है. उतना ही पाता है सुलझ जाए, तो वे उसे निष्कर्ष की बात भी कह सकें। लेकिन | |कि जानना आसान नहीं है। और जितना जानता है, उतना ही पाता अर्जुन सुलझने की पीड़ा से भी नहीं गुजरना चाहता है। है कि जानने को अनंत शेष है। सुलझने की पीड़ा भी प्रसव की पीड़ा है। स्वयं का बहुत कुछ | अज्ञानी बिलकुल दृढ़ता से बोल सकता है। इतना कम जानता काटना, गिराना, हटाना पड़ेगा। सबसे बड़ी कठिनाई तो यही होती | है कि अज्ञान का भी उसे पता नहीं है। है कि मैं उलझा हुआ हूं, इसे इसकी पूरी नग्नता में जानना पड़ेगा। अर्जुन ने जब प्रश्न उठाने शुरू किए थे, तो वह ऐसे आदमी के और कोई भी व्यक्ति मानने को राजी नहीं होता कि कनफ्यूज्ड है। | प्रश्न थे, जिसे उत्तर पहले से ही पता हैं। अगर कृष्ण से पूछता था, कोई भी व्यक्ति मानने को राजी नहीं होता कि उसका मन उलझा | | तो इसलिए कि तुम भी शायद जो मैं कहता हूं वही कहोगे, गवाही हुआ है। सभी लोग मानकर चलते हैं कि वे सुलझे हुए हैं। अपने | । मेरी बनोगे! को धोखा देने की कुशलता भी अदभुत है। हर आदमी यह मानकर कृष्ण से अर्जुन ने गवाही, विटनेस ही मांगी थी, कि आप भी चलता है कि मैं सुलझा हुआ हूं। | कह दें कि जो मैं कहता हूं, ठीक है। कि यह युद्ध व्यर्थ है। कि यह इस दुनिया की सारी उलझनें निन्यानबे प्रतिशत कम हो जाएं, धन और राज्य के लिए संघर्ष गलत है। कि सब छोड़कर चले जाना अगर लोगों को यह पता चल जाए कि हम उलझे हुए हैं। लेकिन धर्म की पुरानी व्यवस्था है। कि हिंसा पाप है; कि अहिंसा में, लोग बिलकुल आश्वस्त हैं। लोग बिलकुल आत्मविश्वास से भरे । समस्त हिंसा का त्याग करके चले जाने में गौरव है। हैं कि हम सुलझे हुए लोग हैं। और सारी दुनिया इतने उलझाव में | अर्जुन ने जब ये बातें कही थीं, तो आश्वस्त भाव से कही थीं 271]
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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