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________________ गीता दर्शन भाग-2 जाना चाहिए, फुलफिल्ड। इतने गीत किसी एक आदमी ने नहीं गाए। रेगिस्तान में खोनी शुरू हुई। यात्रा उठी भी नहीं, पहला कदम उठा रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा कि बंद करो यह बातचीत। भी नहीं, कि भटकाव शुरू हुआ। ऐसा है। और अब तक इसके मैं तो परमात्मा से और कुछ कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि जो लिए कोई उपाय खोजा नहीं जा सका। आगे भी खोजा नहीं जा गीत मैं गाना चाहता था, वह अभी तक गा नहीं पाया। उसी गीत सकता है। सदा ऐसा ही रहेगा। को गाने की कोशिश में छह हजार गीत लिखे जा चुके हैं। लेकिन । इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सत्य लुप्तप्राय है। लेकिन लुप्तप्राय! जो गीत मैं गाना चाहता था वह अब भी अनगाया, अनसंग, अभी | मैं सुबह के सूरज का वर्णन करूं; बिलकुल वर्णन न हो पाए, फिर भी मेरे भीतर पड़ा है। ये छह हजार असफल चेष्टाएं हैं; छह हजार | भी मैं वर्णन सुबह के सूरज का ही कर रहा हूं। आप बिलकुल न फेल्योर्स। छह हजार बार कोशिश कर चुका। जो कहना था, वह | | समझ पाएं, फिर भी आप थोड़ा तो समझ ही जाएंगे कि सुबह का अभी भी अनकहा है। परमात्मा से प्रार्थना कर रहा हूं कि अभी तो | | वर्णन कर रहा हूं। पक्षियों के गीत मेरे वर्णन में सुनाई नहीं पड़ेंगे; मैं साज ही बिठा पाया था, अभी गाया कहां! और यह तो जाने का | | लेकिन फिर भी पक्षियों ने गीत गाए हैं, इतना तो मैं कह ही पाऊंगा। वक्त आ गया। यह तो ठोंक-पीटकर अभी साज बिठा पाया था: | सूरज की गर्मी मेरे शब्दों में न होगी; लेकिन सूरज गर्म था, उत्तप्त अभी गाया कहां था! अब कहीं लगता था कि गाने के करीब आ | था, सुखद था, इतनी खबर तो मैं दे ही पाऊंगा। और आप कितना रहा हूं, तो यह जाने का वक्त आ गया! ही गलत समझें, जब आप किसी को कुछ कहेंगे इस संबंध में फिर, कबीर से पूछे, नानक से पूछे, मीरा से पूछे, किसी से भी पूछे, बात और बिगड़ जाएगी, लेकिन फिर भी सुबह के सूरज से ही वे यही कहेंगे कि जो कहना था, वह हम कह नहीं पाए। वह संबंधित होगी। अनकहा रह गया है। बड़े आश्चर्य की बात है। फिर भी कहा तो | | कितनी ही भूल-चूक होती चली जाए, रेगिस्तान में नदी कितनी है। कबीर ने कहा तो है। मीरा गाई तो। और जो कहना था, वह ही खोती चली जाए, उसका खोजना भी मुश्किल हो जाए, लेकिन अनकहा रह गया। बात क्या है? कहीं रेत को उखाड़ने से उसकी बंदें पकड़ में आ ही जाएंगी। और बात यह है, बात ठीक ऐसी ही है, जैसे कि आप देखें सुबह अगर किसी ने सुबह का सूरज देखा हो, तो हजारवें आदमी की बात सूरज को उगते; पक्षियों को गीत गाते; वृक्षों को खिलते, फूलते। को सुनकर भी वह समझ जाएगा कि मालूम होता है, सुबह के सूरज . फिर घर जाएं, और कोई आपसे पूछे कि थोड़ा वर्णन करें, थोड़ा की बात करते हैं। रिकग्नाइज कर सकेगा। बताएं, कैसा था सूरज? आप कहें, बहुत कुछ कहें। फिर भी आप सत्य इतना तो सदा बच जाता है कि रिकग्नाइज किया जा सकता पाएंगे कि जो भी आपने कहा, वह धुंधली तस्वीर भी नहीं है, जो है। उसकी प्रत्यभिज्ञा हो सकती है। सत्य सदा ही लुप्तप्राय हो जाता आपने देखा था। क्योंकि जो आप कहेंगे, उसमें सूरज की जरा भी है, लेकिन लुप्तप्राय होकर भी सत्य मौजूद होता है। गर्मी नहीं होगी। उसमें पक्षियों के गीतों का संगीत नहीं होगा। उसमें | दूसरी बात ध्यान रखने जैसी है कि सत्य कितना ही लुप्तप्राय हरियाली भी नहीं होगी सुबह की। उसमें सुबह की ठंडी हवाओं की | हो जाए, असत्य नहीं हो जाता है। तभी तो लुप्तप्राय है। अगर ताजगी भी नहीं होगी। उसमें फूलों के खिलने का आनंदभाव भी असत्य हो जाए, तो सत्य मर गया; फिर बचा नहीं, फिर बिलकुल नहीं होगा। वह जो सुबह की एक्सटैसी थी, वह जो सुबह की नहीं बचा। समाधिस्थ अवस्था थी प्रकति की. वह जो सबह का ध्यानमग्न रूप | मेरी तस्वीर उतारी जाए। फिर मेरी तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। था, वह कहीं भी नहीं होगा। और जब आप वर्णन करके चुक चुके फिर उस तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। हर निगेटिव फेंट और होंगे, तो आप कहेंगे कि कहा तो जरूर, लेकिन जो मैंने देखा था, फीका होता चला जाएगा। फिर भी तस्वीर मेरी ही रहेगी। और ऐसा वह इसमें कहीं आया नहीं। | भी वक्त आ सकता है हजारवें निगेटिव पर कि बिलकुल पहचानना - फिर वह आदमी सुनकर किसी और को बताएगा। सत्य लुप्त मुश्किल हो जाए। मैं भी न पहचान सकूँ कि यह मेरा निगेटिव है। होना शुरू हुआ। कुछ तो आपने लुप्त किया। क्योंकि कहने में ही, लेकिन फिर भी निगेटिव मेरा ही रहेगा; कितना ही फीका, कितना कहने की प्रक्रिया में ही भूल हुई। फिर वह आदमी सुनेगा; फिर वह ही दूर, कितनी ही दूर की प्रतिध्वनि, लेकिन मेरी ही रहेगी। हो कहेगा, और सत्य लुप्त होना शुरू हो जाएगा। नदी चली और सकता है, मैं भी न पहचान पाऊं, तो भी, तो भी मेरी ही परंपरा में
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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