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________________ गीता दर्शन भाग-28 अनुमान सही सिद्ध हुए, जो पहले सोचा गया था। बड़ी कठिनाई जैसा हूं। क्रोध है तो क्रोध; काम है तो काम; ईर्ष्या है तो ईर्ष्या; भय थी, इतनी देर तक, पृथ्वी को छोड़ने के बाद जो गहन सन्नाटा है, है तो भय; हिंसा है तो हिंसा। जो भी मेरे भीतर है, जो भी है, बिना उसको आदमी का मस्तिष्क झेल पाएगा कि नहीं झेल पाएगा? | किसी चुनाव के, उस सबको उभार लूं। च्वाइसलेस, चुनावरहित उसका मस्तिष्क फट तो नहीं जाएगा? अपने को देख लूं। इसलिए जिन-जिन यात्रियों को भेजा गया है, उनको महीनों तक | पहला चरण, दूसरों के मंतव्य अलग कर दूं। दूसरा चरण, दमन सन्नाटे में रखने का अभ्यास करवाना पड़ा है-सालों तक। और को बाहर ले आऊं-प्रकट में, प्रकाश में, रोशनी में। घाव को पहली दफा अमेरिका और रूस के वैज्ञानिक ध्यान में उत्सुक हुए | छिपाऊ न। सब मलहम-पट्टियां उखाड़ दूं और घाव का सीधा हैं, अंतरिक्ष यात्री के कारण, कि अगर ध्यान सीखा जा सके, तो | साक्षात करूं, जो भी मैं हूं। अंतरिक्ष यात्री घबड़ाएगा नहीं अकेलेपन से, भयभीत नहीं होगा। बहुत भय मन में पैदा होता है। क्योंकि जब कोई इस सबको और वह जो अनंत सन्नाटा घेर लेगा पृथ्वी के वर्तुल को छोड़ने के | उभारता है, तो पाता है, मैं यह हूं! यह हिंसा, यह वासना, यह बाद...। | ईर्ष्या, यह द्वेष, यह घृणा, यह मत्सर, यह लोभ-यह मैं हूँ! मन पृथ्वी एक पागल ग्रह है, जहां शोरगुल ही शोरगुल है। पृथ्वी के | डरता है, क्योंकि हम सबने अपनी इमेज, अपनी-अपनी प्रतिमाएं वर्तुल को छोड़ा, दो सौ मील की परिधि के बाहर हुए कि सब शून्य | बना रखी हैं। इसलिए स्वाध्याय में तीसरा चरण अपनी बनाई हुई हो जाता है। सन्नाटा ही बोलता है, और कुछ भी नहीं। सन्नाटे की प्रतिमा के मोह को त्यागना है। भी वैसी आवाज नहीं होती, जैसे रात झींगुर बोलते हैं, तब होती है। | हम सबकी अपनी प्रतिमाएं हैं। एक आदमी कहता है कि मैं क्योंकि झींगुर भी नहीं होते; सिर्फ सन्नाटा ही होता है, जो कि प्राणों | | साधुचरित्र हूं। अब उसकी एक प्रतिभा है, एक इमेज है। एक को बेध जाता है और घबड़ाहट पैदा कर देता है। अकेला आदमी | | आदमी कहता है कि मैं कभी क्रोध नहीं करता। एक आदमी कहता अपने आमने-सामने पड़ जाता है। है, मैं निरहंकारी हूं; मुझमें कोई अहंकार नहीं है। एक आदमी कहता हम अपने को उलझाए रखते हैं। स्वाध्याय में आकपाइड. सदा है. मझमें कोई लोभ नहीं है। ये प्रतिमाएं हैं। हमने अपनी-अपनी व्यस्त रहने की वृत्ति सबसे बड़ी बाधा है। तो दूसरे चरण में | सुंदर प्रतिमा बना रखी है। उस सुंदर प्रतिमा को छोड़ने की जिसमें अव्यस्त, अनआकुपाइड, अकेला, और अपने ही दबाए हुए हिस्सों | हिम्मत न हो, वह स्वाध्याय में नहीं उतर सकता। को बाहर लाना पड़ेगा। इसलिए स्वाध्याय को भी यज्ञ कहा। वह भी बड़ी आग है, जिसमें फ्रायड ने, जुंग ने जो साइकोएनालिसिस का, मनोविश्लेषण का । | जलना पड़ेगा। और सबसे पहले जो चीज जल जाएगी, वह है प्रयोग किया, वह इसी हिस्से को बाहर लाने के लिए है। लिटा देते | आपकी सेल्फ इमेज, अपनी प्रतिमा, जो हर आदमी बनाए हुए है। हैं व्यक्ति को कोच पर और उससे कहते हैं, जो तुम्हारे मन में आए। एक आदमी कहता है, मैं बिलकुल सदाचारी हूं; लेकिन चित्त बोलो। सोचो मत, बोलते जाओ। जब वह अनर्गल बोलना शुरू | बहुत असद आचरण करने की आकांक्षाओं से भरा है। उसको कर देता है, कुछ भी जो भीतर आए, वही बोलने लगता है, तो बड़ी | | उसने दबा दिया है। वह कभी लौटकर नहीं देखता वहां, क्योंकि डर हैरानी होती है कि यह आदमी क्या बोल रहा है। असंगत. अनर्गल. | है कि प्रतिमा का क्या होगा! वह सब कुरूप हो जाएगी। विक्षिप्त बातें, स्वस्थ, सामान्य, अच्छे आदमी के भीतर से निकलने | - मैंने सुना है एक स्त्री के संबंध में कि वह बहुत कुरूप थी। लगती हैं। भीतर की पर्ते उभरने लगती हैं। लेकिन फिर भी दूसरा इसलिए वह किसी आईने के सामने नहीं जाती थी। और अगर कभी मौजूद है। कोच के पीछे, पर्दे के पीछे छिपा हुआ साइकोएनालिस्ट, | | भूल-चूक से कोई लोग उसे चिढ़ाने को आईना, किसी का आईना मनोवैज्ञानिक बैठा हुआ सुन रहा है। उसका भय तो है ही। इसलिए सामने कर देते, तो वह आईने को तत्काल फोड़ देती थी। और परा आदमी नहीं खल पाता। इसलिए साइकोएनालिसिस कभी भी कहती थी कि आईना बिलकुल गलत है। इसमें दिखाई पड़ती हूं मैं पूर्ण नहीं हो सकती। दूसरे की मौजूदगी, भय बना ही रहता है। तो कुरूप हो जाती हूं; जब कि मैं सुंदर हूं। आईना खराब है। सब योग के लिए स्वाध्याय नितांत एकांत का अनुभव है। दूसरे का | दुनिया के आईने खराब थे, क्योंकि वह स्त्री सुंदर थी! अपने मन कोई भय नहीं; मैं अपने को पूरा उघाड़ लूं नग्न, नैकेड-पूरा, | में उसका एक इमेज है। 160
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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