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मैं मिटा, तो ब्रह्म
मंदिर बना सकें, जो कि मेरा न हो, तेरा हो - उसका हो, परमात्मा का हो। कोई मंदिर नहीं बना पाए। सब आशाएं की थीं मंदिर बनाने की इसी तरह कि परमात्मा का बन जाए, लेकिन सब मंदिर आखिर में किसी के मेरे मंदिर सिद्ध होते हैं।
यह जो मेरा हैं, यह बदल सकता है। मिटता तब तक नहीं, जब तक मैं भीतर केंद्र पर है।
ऐसा समझें कि एक दीया जल रहा है। और दीए की रोशनी चारों तरफ दीवाल पर पड़ रही है। वह जो दीवाल पर रोशनी पड़ रही है, वह मेरा है। और वह जो दीए की ज्योति जल रही है, वह मैं है । जब तक मैं की ज्योति जलती रहेगी, तब तक मेरे की रोशनी कहीं न कहीं पड़ती रहेगी। दीवाल से हटाइएगा, तो कहीं और पड़ेगी; कहीं और से हटाइएगा, तो कहीं और पड़ेगी। जब तक कि ज्योति न बुझ जाए, मैं फ्लेम, वह जो मैं का, अहंकार का बीच में जलता हुआ दीया है, वह न बुझ जाए, तब तक मेरा बनता ही रहेगा।
इस दीए को उठाओ मकान से और मंदिर में रख दो। कोई फर्क नहीं पड़ता, मंदिर मेरा हो जाएगा। मंदिर की दीवालों पर यह रोशनी फैल जाएगी। इस दीए को उठाओ और जंगल के झाड़ के नीचे रख दो; जंगल के झाड़ों पर इसकी रोशनी फैल जाएगी। वे मेरे हो जाएंगे। इस दीए को जहां ले जाओ, वहीं मेरा पहुंच जाएगा। यह दीए की जो ज्योति है मैं की, यह का स्रोत है, उसका मूल उदगम है।
आसक्तिरहित केवल वही हो सकता है, जो अहंकाररहित है।
आसक्ति अहंकार के जुड़ने का परिणाम है। आसक्ति अहंकार का विकीरण है, रेडिएशन है। जैसे दीए से किरणें दौड़ती हैं, ऐसा मैं से मेरा दौड़ता है। और जहां भी पड़ जाता है, वहीं पकड़ जाता है।
और भी एक मजे की बात है कि जिसे हम मेरा समझ लेते हैं, वह हमारे मैं से आइडेंटिफाइड हो जाता है; उसका तादात्म्य हो जाता है।
समझें, एक व्यक्ति की पत्नी चल बसती है। जब पत्नी मरती है, वह छाती पीटता है, रोता है। तो आप इतना ही मत सोचना कि पत्नी मर गई है, इसलिए रोता है। इसलिए तो रोता ही है, बहुत गहरे में उसके मैं का भी एक खंड मर गया। यह मेरी पत्नी सिर्फ मेरी पत्नी ही न थी; मेरे मैं का भी एक हिस्सा थी । मेरे भीतर के मैं का एक खंड टूट गया, बिखर गया। अब मैं अधूरा हूं कुछ। अब मैं आधा-आधा हूं। इसलिए पत्नी को अगर अर्द्धांगिनी या पति को अगर अर्द्धांग कहने का खयाल रहा है, तो गहरा है।
जब भी मेरा कुछ मिटता है, टूटता है, तभी मैं भी कुछ टूटता और बिखर जाता हूं। थोड़ा एक क्षण को सोचें, आपके पास जो-जो
| चीज ऐसी है, जिसको आप मेरा कहते हैं, अगर वह छीन ली जाए, तो आपके पास कितना मैं बचेगा ? अगर सब छीन ली जाए, तो | आपके मैं की ज्योति बहुत स्टार्ड, भूखी हो जाएगी, जैसे दीए का | सब तेल निकाल लिया। ज्योति रह गई बुझी बुझी । जलती भी है, तो ऐसा लगता है कि अब गई, अब गई! तेल तो सब निकल गया। | जब भी हमारा कुछ मेरा टूटता है, तो भीतर मैं भी टूटता है। क्योंकि | वह मेरा सिर्फ रोशनी ही नहीं है, वह मेरा तेल भी बनता है।
इसलिए आदमी मेरे को बढ़ाता रहता है, ताकि मैं को मजबूत कर ले। जितना बड़ा मकान हो, उतना बड़ा मैं हो जाता है । जितना बड़ा राज्य हो, उतना बड़ा मैं हो जाता है। जितना बड़ा धन हो, उतना | बड़ा मैं हो जाता है। जब धन चला जाता है, तो भीतर मैं भी सिकुड़ | जाता है। तेल खो गया; बाती बुझने लगी। बाती कष्ट में पड़ जाती है। कभी-कभी तो इतने कष्ट में पड़ जाती है कि आदमी जी नहीं सकता, आत्महत्या कर लेता है। तेल बिलकुल नहीं बचता; मरने के सिवाय उपाय नहीं बचता। मर ही जाता है। मेरा गया कि मैं भी मरने की तैयारी जुटा लेता है।
यह जो कृष्ण का कहना है, आसक्तिरहित कर्म करता हुआ... । तब जब कोई आसक्तिरहित कर्म करता है, तो उसका कर्म कैसा है ? उसका कर्म कहीं भी मेरे को निर्माण नहीं करता । उसका जीवन कहीं भी किसी से तादात्म्य स्थापित नहीं करता। वह किसी को नहीं कहता, मेरा । कहीं भी गहरे में उसके भाव मेरे का उठता नहीं। जीता है, मेरे से रहित होकर जीता है। तब जीवन यज्ञ हो जाता है। तब ऐसा कर्म आसक्तिरहित, जीवन को यज्ञ बना देता है। तब पूरा जीवन एक पवित्र हवन हो जाता है।
ऐसा पुरुष, अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, फिर सारे बंधन उसके क्षीण हो जाते हैं।
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फिर कोई बंधन का उपाय नहीं रह जाता। क्योंकि बंधन पैदा ही होते हैं मेरे से। बंधन पैदा होते हैं मैं से। मैं से ही जन्मते हैं अंकुर और बनते हैं जंजीरें। मैं के ही आधार पर ढालते हैं हम अपने कारागृह । मैं से ही हम सजा लेते हैं अपने कारागृहों की दीवालों को। लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ता। अगर हमने कारागृह की जंजीरों को सोने की भी बना लिया, और अगर हमने कारागृह की दीवालों को सुंदर चित्रों से भी सजा लिया, तो भी कारागृह कारागृह है और हम कैदी हैं।
हम सब अपनी कैद को अपने साथ लेकर चलते हैं। वह मेरे की कैद हमारे साथ चलती रहती है। इसलिए अगर आपको अकेला