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________________ O गीता दर्शन भाग-2 और परमात्मा है अस्तित्व। सत का अर्थ है, वह जो सदा है। | सुख सदा किसी पर निर्भर होता है। आनंद सदा ही स्वतंत्र होता है। जिस व्यक्ति का अंतःकरण शुद्ध हुआ, वह जानता है, मैं सदा इसलिए सुख के लिए दूसरे का मोहताज होना पड़ता है। आनंद के हूं। न मैं कभी पैदा हुआ और न कभी मरूंगा। न मैं बच्चा हूं, न मैं लिए किसी का मोहताज होने की जरूरत नहीं है। बढ़ा हूं, न मैं जवान हूं। मैं वह हूं, जो सदा है, जो कभी परिवर्तित - अगर मुझे सुखी होना है, तो मुझे समाज में किसी के साथ होना नहीं होता है। | पड़ेगा। और अगर मुझे आनंदित होना है, तो मैं अकेला भी हो दूसरा शब्द है, चित। चित का अर्थ है, चैतन्य। जो व्यक्ति सकता हूं। अगर इस पृथ्वी पर मैं अकेला रह जाऊं और आप सब जितना शुद्ध होकर भीतर झांकता है, उतना ही पाता है कि वहां कहीं विदा हो जाएं, तो मैं सुखी तो नहीं हो सकता, आनंदित हो चेतना ही चेतना है; वहां कोई मूर्छा नहीं। और जब कोई अपने | सकता हूं। भीतर देख लेता है कि सब चैतन्य है, उसे बाहर भी चैतन्य दिखाई | | लेकिन ध्यान रहे, जिनसे हमें सुख मिलता है, उनसे ही दुख पड़ने लगता है। | मिलता है। जिसे आनंद मिलता है, उसे दुख का उपाय नहीं रह जाता। ध्यान रहे, जो हम भीतर हैं, वही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। ___एक बात अंतिम। आप सोच न पाएंगे, मनुष्य की भाषा में सब चोर को चोर दिखाई पड़ते हैं बाहर। ईमानदार को ईमानदार दिखाई | भाषाओं के विपरीत शब्द हैं, आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। पड़ते हैं बाहर। बाहर हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम भीतर हैं। सुख का ठीक पैरेलल दुख है। खड़ा है सामने। प्रेम के पैरेलल, चूंकि भीतर हम मूछित हैं, इसलिए बाहर हमें पदार्थ दिखाई पड़ता | समानांतर खड़ी है घृणा। दया के समानांतर खड़ी है क्रूरता। सबके है। जब हम भीतर चेतना को अनुभव करते हैं शुद्ध अंतःकरण में, समानांतर कोई खड़ा है। आनंद अकेला शब्द है। क्योंकि आनंद तो बाहर भी चेतना का सागर दिखाई पड़ने लगता है। तब सब चीजें | स्वनिर्भर है, द्वंद्व के बाहर है, अद्वैत है। सुख-दुख, प्रेम-घृणा, सब चेतन हैं। तब पत्थर भी जीवंत और चेतन है। तब इस जगत में कछ वंद्र के भीतर हैं. दैत हैं। भी जड़ नहीं है। तो ऐसा व्यक्ति सदा चेतना में थिर होता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण शुद्ध हुआ जिसका, वह और तीसरी बात है, आनंद। जिसे पता चल गया अस्तित्व का, सच्चिदानंद परमात्मा में स्थिर, सदा स्थिर होता है। उसका दुख मिट जाता है। दुख परिवर्तन में है। जहां परिवर्तन है, शेष कल हम बात करेंगे। पर बैठे रहें। पांच मिनट अब उस वहीं दुख है। और जहां परिवर्तन नहीं है, वहीं आनंद है। जिस | आनंद की खबर को अपने भीतर समा जाने दें। देखें। ताली बजाएं। व्यक्ति को पता चल गया कि परिवर्तन के बाहर हूं मैं, उसके जीवन गा सकें, गाएं। बैठे-बैठे डोल सकें, डोलें। इस आनंद को लें और से दुख विदा हो जाता है। फिर पांच मिनट बाद चुपचाप विदा हो जाएं। मूर्छा में दुख है। जहां बेहोशी है, वहां दुख है। ध्यान रखें, इसलिए दुखी आदमी शराब पीने लगते हैं। और शराबी आदमी दुखी हो जाते हैं। जहां-जहां दुख है, वहां-वहां बेहोशी की तलाश होती है। और जहां-जहां बेहोशी है, वहां-वहां दुख बढ़ता चला जाता है, विशियस सर्किल की तरह। इसलिए दुखी आदमी शराब पीने लगेगा। दुनिया में जितना दुख बढ़ेगा, उतनी शराब बढ़ेगी। जितनी शराब बढ़ेगी, उतना दुख बढ़ेगा। और एक-दूसरे को बढ़ाते चले जाएंगे। जितना ही आदमी होश से भरता है, उतना ही दुख के बाहर हो जाता है। नित्य का पता चल जाए, चैतन्य का अनुभव हो जाए, आनंद की घटना घट जाती है। और ध्यान रहे, यह आनंद किसी से मिलता नहीं। यह फर्क है। सुख किसी से मिलता है। आनंद किसी से मिलता नहीं है, भीतर से आता है। सुख सदा बाहर से आता है। 354
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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