________________
ॐगीता दर्शन भाग-2
इच्छा पूरी न हो, तब तो दुख देती ही है; इच्छा पूरी हो जाए, तो | अलग-अलग रखती है। मिट्टी टूट जाए, बीच से हट जाए! और भी भयंकर दुख देती है। और दुख गंदगी है। सारे प्राण गंदगी | लेकिन अगर गगरी का पानी समझता हो कि मैं मिट्टी की गगरी से भर जाते हैं। दुख अंधेरा है, दुख धुआं है। जहां दुख नहीं है प्राणों | | हूं, तब कभी भी नहीं तोड़ेगा। फिर तो मैं ही टूट जाऊंगा! अगर में, वहां प्राणों की ज्योति उज्ज्वल जलती है, धुएं से मुक्त। ज्योति | | गगरी के भीतर का पानी सोचता हो कि यह मिट्टी की जो पर्त मेरे होती है सिर्फ, धुएं से रिक्त।
चारों तरफ गगरी की है, यही मैं हूं, तो सागर से मिलन कभी भी न तो कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण है शुद्ध जिसका...। होगा। लेकिन पानी को पता चल जाए कि मैं गगरी नहीं, पानी हूं, वासना के द्वार से जिसने भी खोज की, उसका अंतःकरण शुद्ध | तो गगरी तोड़ी जा सकती है। और गगरी टूटे, तो भीतर का पानी नहीं होगा। सड़ेगा। वासना सड़ाती है। उससे ज्यादा सड़ाने वाला और बाहर का पानी एक हो जाए। वह जो भीतर की आत्मा और
और कोई तत्व पृथ्वी पर नहीं है, और कोई केमिकल नहीं है। जितने बाहर की आत्मा है, एक हो जाए। ढंग से वासना सड़ाती है, उतने ढंग से कोई केमिकल नहीं सड़ाता और जब ऐसा हो जाए, तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति सब है। व्यक्ति सड़ता चला जाता है।
| कुछ करे-सब कुछ, अनकंडीशनली; कोई शर्त नहीं है ऐसे तीसरी बात कृष्ण कहते हैं कि जिसने जीता शरीर को; जिसका | व्यक्ति पर सब कछ करे, तो भी कर्म उससे चिपकते नहीं हैं। अंतःकरण शुद्ध है; और जिसने जाना अपने को प्रभु के साथ एक! कर्मों का उस पर कोई भी लेप नहीं चढ़ता है।
दो शर्ते पूरी हों, तो ही तीसरी बात पूरी हो सकती है। शरीर पर इस वक्तव्य से बहुत-से लोगों को कठिनाई होती है। पूछता है हो विजय, तो ही अंतःकरण शुद्ध हो सकता है। नहीं तो शरीर ऐसे | आदमी, सब कुछ करे! चोरी करे, बेईमानी करे! तब वह फिर रास्तों पर ले जाएगा कि आत्मा अशुद्ध होती ही रहेगी। अंतःकरण समझा नहीं बात। चोरी-बेईमानी करे, तो यहां तक पहुंचेगा नहीं। हो शुद्ध, आत्मा हो पवित्र, तो उस पवित्रता के क्षण में ही विराट यहां पहुंच जाए, तो चोरी करने योग्य कुछ बचता नहीं। चोरी के साथ एकात्म सध सकता है। अपवित्रता दीवाल है। पवित्रता में | किसकी करे, वह भी नहीं बचता। चोरी कौन करे, वह भी नहीं सब दीवालें गिर जाती हैं। खुले आकाश से मिलन हो जाता है। बचता। मन होगा, पूछेगा कि कृष्ण कहते हैं, ऐसा आदमी कुछ भी अपवित्रता की दीवाल ही हमें परमात्मा से अलग किए हए है। करे! तो ऐसे आदमी पर कोई नैतिक बंधन नहीं? ।। हमारी ही वासनाओं की अपवित्र दीवाल और ईटें हमें मजबती से बिलकुल नहीं। क्योंकि नीति के बंधन अभी जिसके ऊपर हैं, अपने भीतर बंद किए हैं। गिर जाए दीवाल, तो व्यक्ति जान पाता | उसके भीतर अनीति होनी चाहिए। अनीति के लिए नीति के बंधन है कि मैं और प्रभु एक हैं।
जरूरी हैं। और जो अभी अनीति से भरा है, वह तो अभी गंदगी से इस बात को ऐसा भी समझ लें, जो जानता है कि मैं और शरीर मुक्त नहीं हुआ, अंतःकरण शुद्ध नहीं हुआ। वह यहां तक आएगा एक हैं, वह कभी नहीं जान पाएगा कि मैं और परमात्मा एक हैं। जो | नहीं। यह जो बात है, सब कुछ करे ऐसा व्यक्ति, उसके पहले तीन जान लेगा, मैं और शरीर भिन्न हैं, वह जान पाएगा कि मैं और | बातों को स्मरण रख लेना, शरीर पर पाई जिसने विजय, अंतःकरण परमात्मा एक हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसने अपने को | हुआ जिसका शुद्ध, परमात्मा से जानी जिसने एकता!
शरीर से जोड़ रखा है, वह परमात्मा से टूटा हुआ पाएगा। और इन तीन शर्तों के बाद बेशर्त, कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति कुछ जिसने अपने को शरीर से तोड़ा, वह परमात्मा से जुड़ा हुआ पाएगा। | भी करे। ऐसा व्यक्ति कुछ भी करेगा नहीं, इसीलिए कह पाते हैं कि जिसकी नजर शरीर से जुड़ी है, उसकी पीठ परमात्मा पर होगी। और। | ऐसा व्यक्ति कुछ भी करे। आपसे नहीं कह रहे हैं। अर्जुन से भी जिसकी नजर शरीर से हटी, उसकी आंख परमात्मा पर पड़ जाएगी। नहीं कह रहे हैं। ये तीन सीढ़ियां पार कर लेने के बाद ऐसा व्यक्ति इसलिए शरीर से मुक्त, शरीर के पार उठना अनिवार्य है। कुछ भी करे। ऐसे व्यक्ति पर कोई भी नियम नहीं है, कोई नीति
शुद्ध अंतःकरण, वासनाओं की गंदगी की दीवाल बीच में नहीं नहीं, कोई धर्म नहीं। क्योंकि ऐसा व्यक्ति उस जगह आ गया है, चाहिए, तभी एकात्म-प्रभु और स्वयं के बीच ऐसा मिलन, जैसे जहां अनीति बची ही नहीं। और जब अनीति न बचती हो, तो नीति मटकी टूट जाए और मटकी के भीतर का पानी सागर के पानी से एक की क्या सार्थकता है ? अधर्म बचा नहीं। और जहां अधर्म न बचता हो जाए। मिट्टी की मटकी सागर के पानी को और गगरी के पानी को हो, वहां धर्म बेकार है। और जिसने स्वयं को प्रभु के साथ एक
| 318