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________________ | मन का ढांचा - जन्मों-जन्मों का सपनों में जुड़ेगा। नहीं किया आठ बार, सपनों में घटेगा। फिर हम दोनों सुबह उठे। मैंने पाया कि मेरी चाय आने थोड़ी देर हो गई। आपने भी पाया कि चाय आने में थोड़ी देर हो गई। तो हम दोनों की प्रतिक्रियाएं अलग होंगी। जिसने कल आठ बार क्रोध किया है, वह आज फिर सुबह तैयार उठ रहा है । फिर संभावना बहुत है कि वह तत्काल क्रोध कर ले | जिसने कल आठ बार क्रोध नहीं किया, उसकी संभावना है कि वह क्रोध का कोई मौका आए, तो छोड़ जाए, बच जाए, वंचित रह जाए। एक-एक व्यक्ति अपने जीवन में जो भी कर रहा है— इस जीवन में तो ही, पिछले जीवनों में भी उन सबका जोड़ है। बहिर्मुखी का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जिसने निरंतर बहिर्मुखता को साधा है। निरंतर ! धन खोजा कभी, कभी यश खोजा, कभी वासना, और चक्कर लेता रहा उन्हीं के । तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे मन की वह जो अंतर्मुखता की धारणा है, वह क्षीण होती चली जाती है। और अंतर्मुखी जो द्वार है, वह निरंतर बंद रहने से जंग खा जाता है । फिर उसे एकदम से खोला नहीं जा सकता। जैसे घर में कोई एक दरवाजे को दो-चार - दस साल बंद रखे, तो फिर एकदम से खोलना मुश्किल हो जाए। वह चूं-चर्राहट करे, बहुत आवाज करे; मुश्किल पड़े; तोड़ना पड़े। लेकिन जिस दरवाजे को हम रोज खोलते हैं, वह भी बीस साल पुराना होगा, लेकिन वह खुलने में सुगमता पाता है। जो हम करते रहते हैं निरंतर, वह सुगम हो जाता है। हम सभी बहिर्मुख जीवन में जीते हैं। सारी शिक्षा, सारा समाज, परिवार, जगत बहिर्मुखी होने के लिए तैयारी करवाता है। एक-एक बच्चे को हम तैयार करते हैं, शिक्षा देते हैं। ध्यान की कभी नहीं देते, प्रतियोगिता की देते हैं, कांपिटीशन की देते हैं; एंबीशन, महत्वाकांक्षा की देते हैं। शांति की कभी नहीं देते, मौन की कभी नहीं देते, शब्द की जरूर देते हैं। शब्द सिखाते हैं हम हर बच्चे को, मौन किसी बच्चे को नहीं सिखाते। और शब्द में जो जितना कुशल हो जाए, संभव है कि उतना सफल हो जाए। मौन जो रह जाए, हो सकता है जिंदगी में हार जाए, असफल हो जाए। पूरी जिंदगी हम बाहर की तरफ जीते हैं । सारा शिक्षण, सारी सफलता, सारा इंतजाम जगत का बहिर्मुखी है। और हम उसमें ही दौड़ते चले जाते हैं। बच्चे आते हैं, हम पागलों की दौड़ में हम उनको भी सम्मिलित कर लेते हैं। जैसे किसी पागलखाने में हम एक बच्चे को भेज दें। बहुत संभावना है कि बच्चा पागल हो जाएगा। पागलों के साथ रहेगा, पागल अपने ढंग सिखा देंगे । और अगर बच्चे न सीखें ढंग, तो मां-बाप नाराज होते हैं कि हम तुम्हें अपने | ढंग सिखा रहे हैं और तुम सीखते नहीं! और मां-बाप कभी नहीं सोचते कि उनके ढंग से वे खुद कहां पहुंचे हैं! कहीं नहीं पहुंचे हैं। लेकिन बड़ा आग्रह है कि अपने ढंग बच्चों पर थोप दें। सब पीढ़ियां अपने बच्चों को बहिर्मुखी कर जाती हैं। और बच्चे भी पिछले जन्म से बहिर्मुखी होकर आते हैं। ध्यान रहे, जो बच्चा आपके घर में पैदा होता है, वह थोड़ी ही देर पहले बूढ़ा रह चुका है। । एकदम बच्चा तो इस जमीन पर कोई पैदा होता नहीं। बूढ़े पैदा होते हैं। वह तो बहिर्मुखी होने की सारी यात्रा लेकर आ ही रहे हैं। फिर दुबारा चारों तरफ से दबाव पड़ता है उनके बहिर्मुखी होने का। ऐसा जन्मों-जन्मों तक चलता है। इस जन्मों-जन्मों की यात्रा में अगर धीरे-धीरे सौ में से निन्यानबे | आदमी बहिर्मुखी हो जाते हैं, तो आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि कुछ लोग फिर भी अंतर्मुखी रह जाते हैं, हमारी सारी व्यवस्था के बावजूद, हमारे बावजूद ! हमारे सारे इंतजाम को तोड़कर भी कुछ लोग भाग निकलते हैं। 333 यह बहिर्मुखता जीवन में उपयोगी है, इसलिए हम सीख लेते हैं; युटिलिटेरियन है। अंतर्मुखी आदमी जीवन में असफल हो जाता है। आप जानते हैं, हम अंतर्मुखी आदमी को कहते हैं, बुद्ध। लेकिन कभी समझा आपने, सोचा कि यह बुद्ध शब्द जो है बुद्ध से बना है ! असल में जब पहली दफा बुद्ध बैठ गए सब घर-द्वार छोड़कर, तो जो बुद्धिमान थे गांव में, उन्होंने कहा, बुद्ध निकला ! बुद्ध | | क्योंकि बुद्धूपन तो था ही हम सबकी आंखों में, हम सबकी दुनिया में, हिसाब में। सुंदर स्त्रियां थीं, जैसी कि किसी आदमी को शायद ही कभी मिली हों। छोड़कर भाग गया ! यह आदमी बुद्ध है। साम्राज्य था। हम जिंदगीभर खोजते हैं, और नहीं पाते। नाक रगड़ते रहते हैं पत्थरों पर और नहीं पहुंच पाते। और इस आदमी को जन्म से मिला था साम्राज्य । सिंहासन पर बैठने का क्षण आता था और भाग खड़ा हुआ ! बुद्ध है। बुद्ध को तो सीधा सामने किसी ने भी नहीं कहा होगा। लेकिन | जब कोई और आदमी बुद्ध की तरह झाड़ के नीचे हाथ बांधकर बैठने लगा, तो उन्होंने कहा, यह भी बुद्ध हुआ; यह भी बुद्ध जैसा हुआ ! यह जो हमारा जगत है, वहां केवल बहिर्मुखता उपयोगी मालूम पड़ती है, अंतर्मुखी का कोई मूल्य नहीं है। कोई मूल्य नहीं है। लेकिन जीवन की गहराइयों में अंतर्मुखता का ही मूल्य है। बुद्ध हम जिनको कहते हैं, वे हमको बुद्ध मानते हैं। बुद्ध से हम
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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