SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीता दर्शन भाग-20 पूछने जाएंगे, तो वे हम को अज्ञानी मानते हैं। वे मानते हैं कि तुम को जिंदगी में तकलीफ मिल जाती है, राष्ट्रपति को मरने में। अगर सब नासमझ हो। क्योंकि तुम जो कर रहे हो, उससे कहीं पहुंचोगे | | हिसाब लगाने जाएं, तो कुछ फर्क नहीं रहता। पलड़े बराबर हो नहीं। और जिन चीजों में तुम मूल्य देख रहे हो, उनमें कोई भी मूल्य | जाते हैं। नहीं है। अगर हार गए, तब तो हारोगे ही; अगर जीत गए, तो भी बुद्ध जैसा आदमी कहेगा, तुम यह सब पाकर करोगे क्या? मुश्किल में पड़ोगे। आखिर में एकदम हटा दिए जाओगे सबसे। और जो चीज छीन ही जिंदगी बहुत कंपनसेशन करती है, बहुत हैरानी के। जो लोग ली जानी हैं, उन्हें हम खुद छोड़ देते हैं अपनी मौज से। जो स्त्रियां जिंदगी में असफल रहते हैं, उनको जिंदगी में तकलीफ होती है। छिन जाएंगी, जो धन छिन जाएगा, वह हम छोड़ देते हैं अपनी मौज असफलता की पीड़ा, अहंकार को चोट लगती है। जो लोग सफल | से। हम मालिक हैं अपने। तुम गुलाम हो। तुम तड़पते हुए मरोगे; हो जाते हैं, उनको मरते वक्त भारी पीड़ा होती है। बराबर हो जाता | हम खुशी से जिंदा रहेंगे। और मौत हमसे कुछ भी न छीन पाएगी। है दोनों का पलड़ा। मरते वक्त सफल आदमी को भारी पीड़ा होती | | मौत हमारे पास आकर थक जाएगी और हार जाएगी और मुश्किल है कि सब किया-कराया गया! में पड़ जाएगी कि क्या छीनो! क्योंकि हम सब पहले ही दे चुके, मैंने सुना है, एक आदमी बड़ा व्यवसायी है। लेकिन धीरे-धीरे | | जो मौत हमसे ले लेती। कुछ दिन से पता चलता है कि उसका मुनीम पैसे हड़प रहा है। इस पृथ्वी पर बुद्धिमान लोगों ने वह सब खुद ही छोड़ दिया है, धीरे-धीरे बात पक्की हो गई, प्रमाण हाथ लग गए, तो उस मालिक | | जो मौत उनसे छीन लेती है। और जिस व्यक्ति को मौत का खयाल ने उस मुनीम को एक दिन बुलाया और कहा कि तुम्हारी तनख्वाह है, वह अंतर्मुखी हो जाएगा; और जिसको जिंदगी का खयाल है, कितनी है? उस मुनीम ने कहा कि पंद्रह सौ रुपए महीना। उस वह बहिर्मुखी हो जाएगा। जिंदगी में बहिर्मुखता उपयोगी है। मौत मालिक ने कहा, मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं। और आज से तुम्हारी को ध्यान में रखिएगा, तो अंतर्मुखता उपयोगी है। तनख्वाह करते हैं दो हजार। फिर कहा, नहीं-नहीं-नहीं, दो हजार इसलिए जिन समाजों में मौत का स्मरण रहा है सदा, वे अंतर्मुखी तो कम ही होगा। तुम्हारा काम देखते हुए ढाई हजार करना ठीक | रहे। और जिन समाजों में मौत भुला दी गई, उन समाजों में होगा। मुनीम तो एकदम हैरानी से खड़ा हो गया। उसने कहा, क्या | बहिर्मुखता बढ़ गई। कह रहे हैं आप! एकदम हजार रुपए की बढ़ती! छाती जोर से बुद्ध के पास कोई जाता, तो वे कहते, पहले ध्यान मत करो, धड़कने लगी। मालिक ने कहा कि इतने से तुम खुश हो गए? मैंने | पहले मरघट पर तीन महीने रहकर आओ। वह कहता, लेकिन मुझे तो सोचा था कि तीन हजार...। उस मुनीम ने हाथ पकड़ लिए और ध्यान सीधा सिखा दें; मरघट से क्या मतलब है? बुद्ध कहते, जो कहा, धन्यवाद! मालिक ने कहा कि एक आखिरी बात और कि | आदमी मौत के प्रति जागा नहीं, वह अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट नहीं हो आज से तम्हारी नौकरी खतम। उस आदमी ने कहा, आप क्या कह सकता। पहले तम देखकर आओ, जिंदगी का फल क्या है। तब रहे हैं? अगर नौकरी ही खतम करनी थी, तो तीन हजार तक तुम्हारी बहिर्मुखता टूटेगी। पहले तुम देखो कि जो सफल हुए थे, तनख्वाह क्यों बढ़ाई? उस मालिक ने कहा, अब तुम जरा ज्यादा | वे कहां जा रहे हैं। जिन्होंने जिंदगी में सब पा लिया था, आखिर में परेशान रहोगे। पंद्रह सौ की नौकरी नहीं छूट रही है, तीन हजार की | | वे अर्थी पर बंधे हुए मरघट पहुंच जाते हैं। तुम जरा मरघट पर तीन छूट रही है! अब जाओ। महीने रहकर देख आओ कि बहिर्मुखता का अंतिम परिणाम क्या सफल आदमी मरते वक्त पाता है कि तीन हजार की नौकरी गई। | | है! फिर तुम अंतर्मुखी हो सकोगे। मुश्किल से तो राष्ट्रपति हो पाए थे, वह गया मामला! चपरासी | लेकिन हम मौत की बात ही नहीं करते। बच्चों को हम कभी मौत मरते वक्त इतनी तकलीफ नहीं पाता। चपरासी जिंदा में बहुत | | की बात नहीं बताते। अर्थी निकलती हो, तो बच्चों को मां घर में तकलीफ पाता है, कि सिर्फ चपरासी! राष्ट्रपति मरते वक्त | | बुला लेती है, भीतर आ जा। बाहर कोई अर्थी निकल रही है! तकलीफ पाता है कि राष्ट्रपति हुए और मरे। तीन हजार तनख्वाह | बुद्धिमान मा हो, तो बच्चे को बाहर ले आना चाहिए कि देख, अर्थी मिली, एंड फायर्ड! निकल रही है। लेकिन तब मुश्किल में पड़ेगी वह। क्योंकि कहीं जिंदगी बराबर कर देती है चपरासी और राष्ट्रपति को। चपरासी | | बच्चा अगर ज्यादा बुद्धिमान हो जाए, तो मुश्किल आ सकती है। 334
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy