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गीता दर्शन भाग-2
| शरण होती है।
भ्रांति, दि ग्रेटेस्ट इलूजन है। हम अलग जरा भी नहीं हैं। एक क्षण जाएंगे, तो शरण कौन जाएगा? और किसकी शरण जाएगा? को भी नहीं हैं। एक क्षण को भी हमें अलग कर दिया जाए, और इसीलिए मजेदार है यह वक्तव्य। हम विलीन हो जाएंगे; हम बचेंगे नहीं।
असल में जिस दिन न वह बचे, जो शरण जाता है; और न वह हमारे अलग होने की भ्रांति वैसी है, जैसे कि नदी की छाती पर बचे, जिसकी शरण जाता है, उसी दिन शरणागत होता है व्यक्ति। एक बबूला। पानी का बबूला उठ आया। तैर रहा है, चल रहा है, | | उसी दिन शरण पूरी हुई। जब तक आप बचे हैं और दूसरा बचा है, फिर रहा है, सूरज की किरणों में चमक रहा है। उस बबूले को भी तब तक आप सिर रख दें चरणों में, आपका अहंकार चरणों में नहीं लगता है, मैं अलग।
रखा जाता; वह भीतर खड़ा रहता है। जरा भी अलग नहीं है। जरा अलग करें नदी से और पता | ___ मंदिरों में जाकर देखें; सिर रखे हैं पत्थरों के चरणों में और चलेगा, कहीं भी न रहा। नदी के पानी की जरा पतली-सी पर्त | | अहंकार अकड़कर खड़े हैं। सिर जमीन पर झुका है, अहंकार उसका शरीर थी; वह पानी में खो गई। हवा का छोटा-सा आयतन | | आकाश में उठा है। सिर चरणों में झुका है, अहंकार चारों तरफ देख उसके भीतर,कैद था, वह मुक्त होकर हवा में मिल गया। बस, हम | रहा है कि कोई देखने वाला भी मंदिर में है या नहीं? हम कितनी नदी पर तैरते हुए बबूलों की भांति अलग हैं।
शरण चले गए हैं! अनन्य भाव से, जब न मैं बचे, न तू बचे, तभी इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जो तुझसे पहले भी, कभी भी, जिसने भी जान लिया है इस सत्य को, वह मेरे शरीर को, वह ब्रह्मांड के शरण का अर्थ, समर्पण, सरेंडर। जब तक मैं बचता है, तब तक साथ एक हो जाता है।
समर्पण नहीं होता। इसलिए ध्यान रहे, कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं शरण जाता हूं। कोई आदमी शरण नहीं जा सकता,
क्योंकि जब तक कहने वाला मौजूद है कि मैं शरण जाता हूं, तब प्रश्नः भगवान श्री, अनन्य भाव से मेरी शरण हुए | | तक शरण नहीं होगी। जब मैं नहीं रह जाता, तब आदमी अनुभव
और ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए-इन दो दशाओं का करता है कि शरण जा चुका, शरणागत हो गया। अर्थ और अधिक स्पष्ट करने की कृपा करें। ___ अनन्य भाव से, नहीं कोई दूसरा है उस तरफ, न कोई यहां, जिस '
दिन कोई ऐसी भाव-दशा में आता है जो मैंने कहा कि वीतराग
होने से फलित होती है-उस दिन शरणागति, उस दिन शरण, उस 27 नन्य रूप से मेरी शरण हुए-बहुत मजेदार है, बहुत दिन वह मेरी शरण आ पाता है, कृष्ण कहते हैं। मेरी शरण, वही 1 कंट्राडिक्टरी है, बहुत विरोधाभासी है।
भाषा उपयोग करनी पड़ रही है, जो नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वहां धर्म के सभी सत्य पैराडाक्सेस हैं, विरोधाभासी हैं। कोई मेरा-तेरा नहीं है। विरोध आभास भर है।
दूसरी बात वे कहते हैं, ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए। कृष्ण कहते हैं, अनन्य रूप से मेरी शरण हुए।
यह भी बहुत मजेदार वक्तव्य है, यह भी पैराडाक्सिकल अनन्य का अर्थ है, जो अपने को मझसे अन्य न माने। जो | है-ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए। ज्ञानरूपी तप, इसे जोड़ने की क्या मुझको और अपने को भिन्न न माने, अन्य न माने, अदरनेसन जरूरत थी? तप से शुद्ध हुए, इतना कहना काफी न होता क्या? रहे-अनन्य हो। अनन्य भाव से मेरे साथ एक हो गया हो। | अक्सर ऐसा होता है कि अज्ञानी बहुत तप कर पाते हैं। असल में
लेकिन फिर दूसरी बात कहते हैं। जब एक ही हो गया हो, तो अहंकारी बहुत तप कर सकता है, क्योंकि अहंकारी हठी होता है। शरण होने की गुंजाइश कहां रही! क्योंकि शरण तो हम उसी के जा वह कहता है कि हम रहेंगे साठ दिन भूखे, तो रह सकता है। जरा सकते हैं, जो अन्य है, दि अदर। शरण तो हम उसी की जा सकते | | अहंकार कमजोर हो, तो साठ दिन भूखा रहना मुश्किल हो जाए। हैं, जो दूसरा है। जो दूसरा नहीं है, उसकी शरण हम कैसे जाएंगे? | | अहंकार कमजोर हो, तो साठ दिन भूखा रहना मुश्किल हो जाए;
कृष्ण कहते हैं, अनन्य रूप से मेरी शरण। एक हो जाओ मुझसे अहंकार मजबूत हो, तो आदमी साठ दिन भूखा रह सकता है। और मेरी शरण आ जाओ। बड़ी उलटी बात कहते हैं। एक हो अहंकारी तय कर ले कि हम पैर पर ही खड़े रहेंगे, अब कभी
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