________________
गीता दर्शन भाग-20
सीख पाता कि सपने सच नहीं हैं। जब आता है सपना, सब सच प्रतीति हो जाए। हो जाता है।
कर्म-संन्यास तब आता है, जब प्रतीति हो जाए कि कर्म कर्म-संन्यास कहता है, हर जन्म इसी तरह विस्मरण हो जाता | | स्वप्नवत है, ड्रीम लाइक है। निष्काम कर्म तब फलित होता है, जब है। जन्म को छोड़ दें, आज तक जिंदगी में जो किया है, उससे क्या | ज्ञात हो जाए कि फलाकांक्षा दुख है। हो गया है? कुछ भी नहीं हुआ। पानी पर खींची रेखाओं की तरह | लेकिन फलाकांक्षा होती सुख के लिए है। कोई आदमी दुख की सब मिट गया है। लेकिन आज भी रेखाएं खींचे चले जा रहे हैं; | आकांक्षा नहीं करता। आकांक्षा सभी सुख की करते हैं। और बड़े कल भी रेखाएं खींचेंगे। मरते वक्त पाएंगे, सब खो गया। नए जन्म | मजे की बात है कि जब मिलता है, तो सिर्फ दुख मिलता है - सभी में फिर नई रेखाएं खींचना शुरू कर देंगे।
को। आकांक्षा सदा सुख की, फल सदा दुख! दौड़ते हैं पाने को कर्म-संन्यास कर्म के सत्य के प्रति इस होश का नाम है कि कर्म | | स्वर्ग, मंजिल आती है सदा नर्क की। सोचते हैं, लगेगा हाथ आनंद से कुछ भी फलित नहीं होता है। कर्म एक खेल से ज्यादा नहीं है। | का अनुभव, हाथ सिर्फ दुख-स्वप्न, पीड़ा और संताप लगते हैं। तो जो प्रौढ़ हो जाएगा इस समझ से, वह कर्म के बाहर हो जाएगा। निष्काम कर्म तब फलित होता है, जब कोई फलाकांक्षा की इस छोड़ देगा कर्म को। छोड़ देगा, कहना शायद ठीक नहीं है, कर्म | | ट्रिक, फलाकांक्षा के इस रहस्य को समझ लेता है कि फलाकांक्षा छूट जाएंगे उससे।
| सदा भरोसा देती है सुख का, लेकिन जब भी हाथ में आता है पक्षी जैसे बच्चा बड़ा हो गया। अब वह कंकड़-पत्थरों से नहीं | सुख का, तो दुख का सिद्ध होता है। लेकिन होशियारी है। खेलता। अब वह रेत पर मकान नहीं बनाता। अब वह गुडे और | होशियारी यह है कि जो हाथ में आ जाता है, फलाकांक्षा उससे हट गुड़ियों का विवाह नहीं रचाता। अब उससे कोई कहता है कि पहले | जाती; और जो पक्षी हाथ में नहीं, उस पर लग जाती है। हाथ में तो तुम बहुत रस लेते थे, अब तुमने क्यों छोड़ दिए गुड़ियों के खेल ? | | सदा दुख होता, आकांक्षा सदा उन पक्षियों के साथ उड़ती रहती, जो क्यों तुम रेत पर मकान नहीं बनाते? क्यों तुम रंगीन कंकड़-पत्थर | | हाथ में नहीं हैं। जब उनमें से कोई भी पक्षी हाथ में आता, तो दुख इकट्ठे नहीं करते? तो वह बच्चा यह नहीं कहता कि मैंने छोड़ दिया। | सिद्ध होता। लेकिन और पक्षी उड़ते रहते हैं आकाश में, आकांक्षा वह कहता है. अब मैं बडा हो गया: वह सब छट गया। उनका पीछा करती रहती है।
कर्म-संन्यास कर्म का त्याग नहीं, कर्म के प्रति इस सत्य का इसलिए आकांक्षा की इस निरंतर स्टुपिडिटी, इस निरंतर मूढ़ता अनुभव है कि कर्म का जगत स्वप्न का जगत है। तब कर्म छूट | | का कभी अनुभव नहीं हो पाता। हाथ में आए पक्षी को हम कभी जाता है।
नहीं सोचते कि कल इसे भी चाहा था। आज हम कुछ और चाहने कृष्ण कहते हैं, यह मार्ग भी श्रेयस्कर है। यह मार्ग भी मंगलदायी | लगते हैं। है। इस मार्ग से भी परम अनुभूति तक पहुंचा जाता है। पर कृष्ण जिंदगीभर आकांक्षाएं फलित होती हैं, पूरी होती हैं, लेकिन हम कहते हैं, कठिन है यह मार्ग। दूसरे मार्ग को कृष्ण कहते हैं, सरल | कभी नहीं सोचते कि जो चाहा, वह मिला? जो चाहते हैं, वह कभी है निष्काम कर्म।
नहीं मिलता है। जो नहीं चाहते हैं, वह सदा मिलता है। लेकिन जो निष्काम कर्म में कर्म के ऊपर आग्रह नहीं है। निष्काम कर्म में | नहीं चाहते हैं, जब वह मिल जाता है, तो हम उसके दुख को फिर कर्म के पीछे जो फलाकांक्षा है. उसको समझने का आग्रह है।। | किसी नई चाह के सपने में भला देते हैं, फिर नए सपने में हम डूब कर्म-संन्यास में कर्म को समझने का आग्रह है कि कर्म ही व्यर्थ है। | | जाते हैं। निष्काम कर्म में कर्म की जो फलाकांक्षा है, उसको समझने का निष्काम कर्म का रहस्य है, फलाकांक्षा की इस तरकीब को ठीक आग्रह है कि फलाकांक्षा व्यर्थ है।
| से देख लेना कि मन सदा ही, जो नहीं है पास, उसको खोजता रहता कृष्ण कहते हैं, कर्म चलता रहे, भेद नहीं पड़ता; फलाकांक्षा है। और जो पास है, उसमें दुख भोगता रहता है। और कभी यह भर विसर्जित हो जाए। खेल चलता रहे; कोई हर्जा नहीं; लेकिन गणित नहीं बिठाया जाता कि कल यह भी मेरे पास नहीं था, तब बच्चा यह जान ले कि खेल है। यह भी तभी जाना जा सकता है, | | मैंने इसमें सुख चाहा था। और आज जब मेरे पास है, तो मैं दुख जब फलाकांक्षा दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लाती, इसकी | भोग रहा हूं। वर्तमान सदा दुख, भविष्य सदा सुख बना रहता है।
274