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________________ कामना - शून्य चेतना सुख सुख-सामग्री, तो होशपूर्ण व्यक्ति जो है, वह छोड़ देता है। छोड़ देता है सामग्री से । ऐसी सामग्री व्यर्थ बोझ है, जो सिर्फ सुख के खयाल से है। और सुख कुछ मिलता नहीं, सिर्फ बोझ ही लगता है। कुछ मिलता नहीं है सुख। कई बार तो इतना बोझ भरता चला जाता है कि जिसका कोई हिसाब नहीं । मैं एक बहुत बड़े आदमी के घर में कुछ दिन पहले मेहमान था। तो उनके बैठकखाने में बैठने की जगह भी नहीं है! चलना-फिरना भी मुश्किल है। इतनी सुख - सामग्री भर दी है बैठकखाने में कि बैठकखाने के बाहर खड़े होकर ही उसका सुख लिया जा सकता है, भीतर जाकर नहीं ! बेकार हो गया बैठकखाना, बैठकखाना बैठने के लिए है। वह बैठने के लायक नहीं रहा है। वह अजायबघर बना लिया है उन्होंने! उसमें चलते-फिरते डर भी रखना पड़ता है कि उनकी कोई मूर्ति न गिर जाए; कहीं कोई धक्का न लग जाए। महंगी चीजें हैं। वह खुद भी जरा सम्हलकर ही गुजरते हैं वहां से। बैठकखाना आराम के लिए है। लेकिन वह गया ! लेकिन वह बैठकखाना बैठने के लिए बनाया नहीं गया है। वह तो किन्हीं दूसरों की आंखों में भाव पैदा करने के लिए बनाया गया है। और जब दूसरे की आंख में भाव पैदा होता है, तो रस आता है, सुख आता है। सुख दूसरे की आंख से आता है, बड़े मजे की बात है, भीतर से नहीं आता। कोई आदमी आकर कह देता है कि हां, आपका बंगला तो बहुत सुंदर बना है, तो सुख आता है। कलकत्ते में मैं एक घर में ठहरता था। जब भी उनके घर जाता था— नया मकान बनाया था, कलकत्ते में सबसे अच्छा मकान था, स्वीमिंग पूल था, बगीचा था, सब था, बहुत अच्छा था - उसकी बात करते नहीं थकते थे वे। कहीं से भी बात शुरू करो, मकान पर पहुंच जाती! दो मिनट से ज्यादा कहीं न चलती। ब्रह्म से शुरू करो, मकान आ जाए! कहीं से शुरू करो। मैंने सब तरफ से बातचीत शुरू करके देख ली। लेकिन कोई उपाय नहीं। दो मिनट से ज्यादा आप चल नहीं सकते, ट्रैक वापस मकान पर आ जाए। मैंने मोक्ष से, ब्रह्म से बात शुरू करके देखी। मैंने उनसे मोक्ष की कुछ बातचीत शुरू की। मिनट डेढ़ मिनट में उन्होंने कहा, एक बात तो बताइए कि मोक्ष में मकान होते हैं कि नहीं ? और उन्होंने कहा कि यह मकान बनाया...। बस, शुरू कर देते थे वे कहीं से भी ! फिर दो साल बाद उनके घर मेहमान हुआ, तो उन्होंने मकान की बात न की । जरा चिंतित हुआ। मैंने कई बार मकान की बात छेड़ी, लेकिन कुछ भी करो, कहीं से भी छेड़ो, वे टाल जाते । स्वीमिंग पूल की कितनी ही तारीफ करो, वे टाल जाते । वे दूसरी बातें उठा लेते। मैंने पूछा, बात क्या है? गड़बड़ क्या हो गई? पहले मैं नहीं छेड़ता था, आप छेड़ते थे; अब मैं छेड़ता हूं, आप नहीं | छेड़ते ! उन्होंने कहा, देखते नहीं हैं बगल में? बगल में एक बड़ा मकान बन गया, उनसे भी बड़ा। अब क्या खाक मकान की बात करनी है! जब तक उससे बड़ा न बना लें, तब तक अब ठीक है। निकलता नहीं हूं बगीचे में, उन्होंने कहा। क्योंकि निकलो बाहर, तो वह मकान दिखाई पड़ता है ! यह जो हमारा चित्त है, कृष्ण कहते हैं, सुख की सामग्री को छोड़कर...। सामग्री को छोड़ने की बात जरा भी नहीं है। सामग्री अपनी जगह | है । पर उससे सुख को खींचना पागलपन है। सामान से सुख नहीं मिलता; ज्यादा से ज्यादा सुविधा मिल सकती है। सामग्री ज्यादा से ज्यादा कनवीनियंस हो सकती है, सुख नहीं। लोग सुविधा को सुख समझकर भूल में पड़ते हैं। सुविधा बिलकुल ठीक है, ओ के । सुख पागलपन है। सुविधा जरूरत हो सकती है। सुख ? सुख मिलता ही नहीं है बाहर से, सामग्री से; सुख मिलता है स्वयं से। इसलिए कृष्ण दूसरी बात कहते हैं, स्वयं को जीतकर ! असल में दो तरह की जीत हैं इस जगत में। एक वे लोग हैं, जो वस्तुओं को जीतते रहते हैं। छोटी कार से बड़ी कार जीतते हैं। छोटे | मकान से बड़ा मकान जीतते हैं। बस, वस्तुओं को जीतते रहते हैं। आखिर में पाते हैं, वस्तुएं तो जीत लीं, खुद को हार गए। मरते वक्त पता चलता है, जो जीता था, वह पड़ा रह गया और हम चले। तब कुछ सामान साथ ले जाना मुश्किल हो जाता है। पंछी जाए अकेला! वह सब जो जीता था, पड़ा रह जाता है। कुछ वे लोग हैं, जिन्हें बुद्धिमान कहें, जो वस्तुओं को नहीं जीतते । क्योंकि जो जानते हैं, वस्तुएं हम नहीं थे, तब भी थीं; हम नहीं होंगे, तब भी होंगी। और वस्तुओं की जीत असली जीत नहीं | है, अपनी जीत असली जीत है। स्वयं को जीतते हैं। 109 जो वस्तुओं को जीतता है, वह स्वयं को हारता चला जाता है। वस्तुओं पर दांव बढ़ता चला जाता है और स्वयं की हार गहरी होती चली जाती है। नजर वस्तुओं पर लग जाती है, स्वयं से चूक जाती है । फिर कोई स्वयं को जीतता है। कृष्ण उसकी बात कर रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति स्वयं को जीत लेता - आत्म-विजय। महावीर ने कहा है, तुम सब हार जाओ और स्वयं को जीत लो,
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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