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________________ संन्यास की नई अवधारणा लकड़ी को ईंधन नहीं बनाया जा सकता। आग कम पैदा होती है, धुआं ज्यादा पैदा होता है। सूखी लकड़ी चाहिए। उपवास का प्रयोग योगाग्नि पैदा करने के लिए, शरीर को सुखाने के लिए किया गया था । विशेष उपवास की प्रक्रिया के बाद शरीर उस हालत में आ जाता है कि समस्त भीतरी शरीर की व्यवस्था सूखी, ड्राई हो जाती है। उसमें जरा से ही प्रयोग से अग्नि पैदा हो जाती है। जरा-से ही प्रयोग से। तो एक तो उपवास योगाग्नि पैदा करने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग था। दूसरा, अग्नि की धारणा! जब शरीर बिलकुल भीतर रूखी हालत में हो, सूखी हालत में हो, गीला न हो, तब अग्नि की धारणा । सुना होगा, पढ़ा होगा आपने, सूर्य पर त्राटक । वह अग्नि की धारणा के लिए अभ्यास है। इसलिए जो नहीं जानता योगाग्नि की पूरी प्रक्रिया को, उसे भूलकर सूर्य पर त्राटक नहीं करना चाहिए, • अन्यथा आंखें खराब करेगा, और कुछ भी नहीं । सूर्य पर त्राटक योगाग्नि पैदा करने का एक अभ्यास मात्र है, एक फ्रेगमेंट, एक खंड- अंश । जब सूर्य पर कोई आंख रखकर निश्चित समय पर, निश्चित प्रक्रिया से पर ध्यान करता है, तो उसके भीतर आंखों के द्वारा इतनी सूर्य किरणें इकट्ठी हो जाती हैं। कि ये सूर्य किरणें उपवास के साथ मन के भीतर आंख बंद करके ज्योति की, अग्नि की धारणा करने से सक्रिय हो जाती हैं और भीतर सूक्ष्म अग्नि पैदा हो जाती है। लेकिन यह पूरी एक आकल्ट प्रोसेस है। इसमें कुछ हिस्से मैं छोड़ रहा हूं, अन्यथा कोई ऐसे ही कुतूहलवश प्रयोग करे, तो खतरे में पड़ सकता है। इसलिए आप इतने से कर न पाएंगे; इतना मैं सिर्फ समझाने के लिए कह रहा हूं। इसके कुछ हिस्से छोड़े दे रहा हूं, जिनके बिना यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती। वे हिस्से तो निजी और व्यक्तिगत तौर से ही साधक को बताए जा सकते हैं। लेकिन मोटे अंग मैंने आपको बता दिए। जब भीतर अग्नि पैदा होती है, तो उसके दो प्रयोग हो सकते हैं। या तो इंद्रियों के सूक्ष्म रस को समर्पित कर दिया जाए उस अग्नि में, तो व्यक्ति पूरी तरह जीवित होगा, लेकिन पूरा रूपांतरित हो जाएगा; दूसरा ही हो जाएगा। और इस अग्नि का अंततः मृत्यु के समय भी उपयोग किया जा सकता है। तब शरीर को पूरा ही समर्पित किया जा सकता है। कृष्ण ने इसीलिए साधारण अग्नि की बात नहीं कही, योगाग्नि की बात कही है कि योगाग्नि में अपनी इंद्रियों को समर्पित कर दे जो, वह मुक्त, वह समस्त बंधनों के बाहर हो जाता है। द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।। २८ । । और दूसरे कई पुरुष ईश्वर - अर्पण बुद्धि से लोक सेवा में द्रव्य लगाने वाले हैं, वैसे ही कई पुरुष स्वधर्म पालन रूप तपयज्ञ को करने वाले हैं, और कई अष्टांग योगरूप यज्ञ को करने वाले हैं; और दूसरे अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष भगवान के नाम का जप तथा भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन रूप ज्ञानयज्ञ के करने वाले हैं। कृ ष्ण ने इस सूत्र में और बहुत - बहुत मार्गों से इस धर्म-यज्ञ को करने वाले लोगों का उल्लेख किया है। एक-एक को क्रमशः समझ लेना उपयोगी होगा। पहला, ईश्वर - अर्पण भाव से सेवा को यज्ञ समझ लेने वाले लोग। ईश्वर - अर्पण भाव से सेवा को धर्म बना लेने वाले लोग, वे भी वहीं पहुंच जाते हैं। लेकिन शर्त है, ईश्वर - अर्पण भाव से । सेवा अहंकार - अर्पित भी हो सकती है। जब मैं सेवा करूं किसी की और चाहूं कि वह मेरे प्रति अनुगृहीत हो, तो अहंकार - अर्पित हो गई सेवा | अगर चाहूं सेवा करके कि वह मुझे धन्यवाद दे, तो अहंकार - अर्पित हो गई सेवा । | सेवा मैं करूं और चाहूं परमात्मा को धन्यवाद दे; अनुग्रह परमात्मा का। मैं बीच में जरा भी नहीं करूं, और हट जाऊं। मुझे पता ही न चले कि मैंने सेवा की; इतना ही पता चले कि परमात्मा ने मुझसे काम लिया। मुझे सेवक होने का कभी बोध भी न हो; सिर्फ परमात्मा का उपकरण होने का बोध हो। मैं कुछ कर रहा हूं, ऐसा कर्ता का भाव सेवा में न आए। प्रभु करवा रहा है, मैं उसके इशारों पर चल रहा हूं। जैसे हवा में वृक्ष के पत्ते डोलते, या सूखे पत्ते उड़ते अंधड़ में, या नदी पर तिनका तैरता ; नदी जहां ले जाए, चला जाता। अंधड़ जहां ले जाए सूखे पत्ते को, उड़ जाता। ऐसा ईश्वर - अर्पण भाव से जो व्यक्ति सेवा करता है, उसके लिए सेवा भी साधना बन गई। उसके लिए सेवा भी उपासना है। उसके लिए सेवा भी प्रार्थना है। लेकिन अकेली सेवा प्रार्थना नहीं | है; ईश्वर - अर्पण भाव के कारण प्रार्थना है। ईश्वर - अर्पण - जो भी 147
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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