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गीता दर्शन भाग-2
वह जो आखिरी याद है आपकी समझ लें कि तीन साल की उम्र की आखिरी याद आपको आती है कि वह मेरी आखिरी याद है, उसके बाद शून्य हो जाता है - तो रोज रात को उस आखिरी याद को ही याद करते हुए, करते हुए सो जाएं, उसी को याद करते हुए सो जाएं। पता न चले कि कब आप याद करते रहे और कब नींद आ गई। उसको ही याद करते रहें, याद करते रहें, करते रहें, और नींद को आ जाने दें। आपकी याद करने की प्रक्रिया चलती ही रहे, जब तक कि आप सो ही न जाएं। जब तक होश रहे, चलाए रखें। तो वही याद हुक का काम करती है। जैसे कि कोई मछली को पकड़ता है कांटा डालकर। वह आखिरी याद आपके अचेतन चित्त में अंदर उतर जाती है। और किसी और याद को पकड़कर सुबह तक वापस आ जाती है। सुबह आपको एकाध और याद आएगी, जो तीन साल से भी पीछे की है। फिर उसका उपयोग करें।
और रोज ऐसा उपयोग करते रहें और रोज आप पाएंगे कि आप जन्म के करीब सरक हैं। फिर आपको एक दिन वह भी याद आ जाएगी, जिस दिन आपका जन्म हुआ। फिर उसको पकड़कर ध्यान करते रहें रात सोते वक्त, और तब आपको मां के पेट की याद आनी शुरू हो जाएगी। और तब आपको गर्भ धारण की याद आएगी। फिर उसको पकड़ लें, उस पर प्रयोग करते रहें। और तब आपको पिछले जन्म की मृत्यु की याद आएगी।
फिल्म उलटी चलेगी निश्चित ही, फिल्म उलटी चलेगी। पिछले जन्म की याद में पहले मृत्यु की याद आएगी, फिर आप बूढ़े होंगे, फिर जवान होंगे, फिर बच्चे होंगे, फिर जन्म होगा। याद उलटी होगी, जैसे फिल्म की रील को हम उलटा चला रहे हों। इसलिए पहचानने में थोड़ी कठिनाई होगी, वैसी कठिनाई होगी कि जैसे अगर फिल्म को हम उलटा चला दें या किसी उपन्यास को उलटा पढ़ना शुरू करें, तो कठिनाई हो । लेकिन अगर दो-चार दफे पढ़ें, तो उलटे पढ़ने का भी अभ्यास हो जाएगा। और एक दफा उलटा पढ़ लें, तो फिर सीधा भी पढ़ सकते हैं।
पहली दफा बहुत कठिनाई होगी, क्योंकि कुछ समझ में नहीं आएगा। उलटा- उलटा लगेगा सब कैसा उलटा नहीं हो जाएगा ! पहले मरेंगे, फिर बूढ़े होंगे, कठिनाई मालूम पड़ेगी। फिर जवान होंगे, बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। फिर बच्चे होंगे, बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। सब उलटा होगा।
लेकिन एक बार स्मृति आ जाए, तो कृष्ण जो कह रहे हैं, औरों में आपकी गिनती न रह जाएगी। और औरों में गिनती न रह जाए,
यही लक्ष्य है । औरों में गिनती रही आए, तो जीवन व्यर्थ है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। ७ ।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।। ८ ।। हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं, अर्थात प्रकट करता हूं।
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए युग-युग में प्रकट होता हूं।
अं
तिम श्लोक की बात कर लें, फिर कल सुबह । मैंने कहा, कृष्ण जैसे लोग करुणा से पैदा होते हैं। वासना से नहीं, करुणा से । वासना और करुणा का थोड़ा भेद समझें, तो यह सूत्र समझ में आ जाएगा।
वासना होती है स्वयं के लिए, करुणा होती है औरों के लिए। वासना का लक्ष्य होता हूं मैं, करुणा का लक्ष्य होता है कोई और। वासना अहंकार केंद्रित होती है, करुणा अहंकार विकेंद्रित होती है। | ऐसा समझें कि वासना मैं को केंद्र बनाकर भीतर की तरफ दौड़ती
करुणा पर को परिधि बनाकर बाहर की तरफ दौड़ती है। करुणा, जैसे फूल खिले और उसकी सुवास चारों ओर बिखर जाए। करुणा ऐसी होती है, जैसे हम पत्थर फेंकें झील में; वर्तुल बने, लहर उठे और दूर किनारों तक फैलती चली जाए।
करुणा एक फैलाव है, वासना एक सिकुड़ाव है। वासना संकोच है, करुणा विस्तार है।
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कृष्ण कहते हैं, करुणा से; युगों-युगों में जब धर्म विनष्ट होता है, तब धर्म की पुनर्संस्थापना के लिए; जब अधर्म प्रभावी होता है, | तब अधर्म को विदा देने के लिए मैं आता हूं।
यहां ध्यान रखें कि यहां कृष्ण जब कहते हैं, मैं आता हूं, तो यहां वे सदा ही इस मैं का ऐसा उपयोग कर रहे हैं कि उस मैं में बुद्ध भी | समा जाएं, महावीर भी समा जाएं, जीसस भी समा जाएं, मोहम्मद भी समा जाएं। यह मैं व्यक्तिवाची नहीं है। असल में वे यह कह