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• संन्यास की घोषणा
साधु मंत्रियों से प्रतिष्ठित होते हैं!
इन बहिर्मुखी लोगों के लिए बहिर्मुखी संन्यास। और ऐसा नहीं सब साधुओं के शिष्यगण मंत्रियों का चक्कर लगाते हैं कि हमारे | | कि बहिर्मुखी संन्यास से पहुंचा नहीं जा सकता है। बिलकुल पहुंचा साधुजी के पास चलें। कोई मंत्री जाता नहीं; लाए जाते हैं। चेष्टाएं जा सकता है। की जाती हैं। किसी तरह साधु के पास में बिठाकर मंत्री की तस्वीर | कृष्ण ने अर्जुन से जो कहा, वैसी बात आज पूरे युग से कही जा उतरवा लें, तो भारी कृत्य हो जाता है! ऐसा नहीं कि साधु की, | सकती है, अधिक लोगों से कही जा सकती है। लेकिन फिर भी, कीमत वह मंत्री की ही है। धर्म की सभा का भी उदघाटन हो, तो | | जिनकी यात्रा अंतर्मुखता की है, उन्हें कोई कारण नहीं है कि वे राजनेता चाहिए!
खींचकर कर्म के जगत और जाल में आएं। उन्हें उनकी नियति से बहिर्मुखी युग है। जो बाहर से आंकी जा सकती है प्रतिष्ठा, हटाने का कोई भी प्रयोजन नहीं है। उसकी ही कीमत है। भीतर का कोई मूल्य नहीं। कवि भी आदृत लेकिन यदि हम सोचते हों कि अंतर्मुखता ही धर्म है, इंट्रोवर्शन होगा, ज्ञानी भी आदृत होगा, तो वह बाहर से आंका जा सके, | ही धर्म है, और कर्म त्याग करके ही कोई संन्यासी हो सकता है,
अन्यथा नहीं आदत हो सकेगा। ऐसा नहीं है कि अंतर्मुखी लोग नहीं तो हम इस जगत को धार्मिक बनाने में सफल न हो पाएंगे। हैं, लेकिन अंतर्मुखी प्रभाव की धारा पर नहीं है। युग बहिर्मुखी है। ___ और ध्यान रहे, अगर यह हमारी पृथ्वी अधार्मिक रह गई, यह
युग भी रूपांतरित होते हैं। जीवन में सब चीजें बदलती रहती हैं। हमारा युग अधार्मिक से अधार्मिक होता चला गया, तो इसका हर चीज ऋतु के अनुसार बदलती रहती है। हर अंतर्मुखी युग के बाद | जिम्मा अधार्मिक लोगों पर नहीं होगा, बल्कि उन धार्मिक लोगों पर बहिर्मुखी युग होता है। बहिर्मुखी के बाद अंतर्मुखी युग होता है। होगा, जिन्होंने इस युग के योग्य धर्म की अवतारणा नहीं की; जो ___मैं जानकर जोर देता हूं कि इस युग को ऐसे संन्यासी की जरूरत | | इस युग के योग्य धर्म को अवतरित नहीं कर पाए; जो इस युग के
कर्म-संन्यास में नहीं, बल्कि निष्काम कर्म में आस्थावान हो। प्राणों को स्पर्श कर सके, ऐसे धर्म का उदघोष न दे सके जो ऐसा - आज के युग को ऐसे संन्यासी की जरूरत है, जो जीवन की संदेश और मैसेज न दे सके, जो इस युग की भाषा और इस युग प्रगाढ़ धारा के बीच खड़ा हो जाए। जो जीवन को छोड़कर न हटे, के प्राणों को स्पंदित कर दे। न भागे। इसका यह मतलब नहीं है कि जो अंतर्मुखी हैं, उनको भी इसलिए मैं जोर देता हूं कि अब संन्यासी निष्कामकर्मी हो। यह मैं खींचकर कहूंगा कि वे भी जीवन की धारा में खड़े हो जाएं। नहीं; जोर मेरा वैसा ही है, जैसा कृष्ण का जोर था, कंडीशनल है। यह पर वे न के बराबर हैं। उन्हें खींचकर खड़ा करने की कोई भी जरूरत जोर वैसा ही है, जैसा कृष्ण का जोर था अर्जुन से कि दूसरा मार्ग नहीं है। वे भी पहुंच सकते हैं अपने मार्ग से। लेकिन उनके मार्ग से तेरे लिए सुगम है। पहले मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है। ठीक ऐसे युग नहीं पहुंच सकता है। वे पहुंच जाएंगे अपने मार्ग से प्रभु तक। ही मैं कहता हूं, इस युग के लिए, बीसवीं सदी के लिए निष्काम वे जाएं अपनी यात्रा पर। लेकिन यह जो विराट आज का युग है, कर्म ही सुगम है, सरल है, मंगलदायी है। पहले मार्ग से भी पहुंचा यह जो बाहर संलग्न, इस बाहर संलग्न युग की धारा को अगर | | जा सकता है, लेकिन अब वह मार्ग इंडिविजुअल होगा। अब उसमें धार्मिक बनाना हो, तो धर्म को अंतर्मुखी सीमाओं को तोड़कर कर्म | इक्के-दुक्के लोग जा सकेंगे। राजपथ अब उसका नहीं होगा; अब के बहिर्मुखी जाल में पूरी तरह छा जाना होगा।
पगडंडी होगी। अब राजपथ पर तो बहिर्मुखता का संन्यास ही गति अगर हम कर्मठ संन्यासी पैदा कर सकें, तो ही इस युग को कर सकता है। प्रभावितं करेगा। अगर हम ऐसा संन्यासी पैदा कर सकें जिसका | और बहिर्मुखी संन्यास में और अंतर्मुखी संन्यास में रूप का ही चिंतन, जिसका मनन और जिसका आचरण, जिसका समस्त जीवन | | भेद है, अंतिम मंजिल का कोई भी नहीं। शरीर का भेद है, आत्मा कर्म के जगत को भी रूपांतरित करता हो, ट्रांसफार्म करता हो; जो | | का कोई भी नहीं। आकार का भेद है, निराकार निष्पत्ति में कोई भी आंतरिक क्रांति से ही नहीं गुजरता हो, जो बाहर जीवन को भी क्रांति अंतर नहीं है। युग के अनुकूल, युगधर्म! का उदघोष करता हो, तो हम इस युग को धार्मिक बना पाएंगे। संन्यासी अब करीब-करीब जंगल, पहाड़ और गुफा में उपयोगी अन्यथा धर्म सिकुड़ जाएगा कुछ अंतर्मुखी लोगों की गुफाओं में नहीं है। अगर पहाड़, गुफा और जंगल संन्यासी जाए भी, तो सिर्फ और ये बहिर्मुखी लोग अधर्म की तरफ बढ़ते चले जाएंगे। इसीलिए कि वहां से तैयार होकर उसे लौट आना है यहीं बाजार में,
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