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गीता दर्शन भाग-20
सरल है।
के लिए हानिप्रद बताते हैं। समाज को ध्यान में रखते इसलिए जब भी गीता को पढ़ें, तो सदा यह देख लें कि आप | | हुए, कर्म-संन्यास और निष्काम कर्म पर कुछ प्रकाश अर्जुन के ढंग के आदमी हैं, तो यह बात ठीक है। अगर अर्जुन से | डालने की कृपा करें। विपरीत आदमी हैं, तो उलटा कर लें सूत्र को पहली बात सरल है। और दो ही तरह के लोग हैं जगत में, स्वप्न में जीने वाले, और कर्म में जीने वाले। भीतर, इंट्रोवर्ट, अंतर्मुखी; और एक्सट्रोवर्ट, - सा मैंने कहा, व्यक्ति होते हैं अंतर्मुखी, बहिर्मुखी; वे बहिर्मुखी।
OI जो भीतर जीते हैं, और वे जो बाहर जीते हैं। जैसे अर्जुन बहिर्मुखी है। बाहर जी रहा है।
व्यक्ति अंतर्मुखी और बहिर्मुखी होते हैं, ऐसे ही युग एक कवि का जीवन भीतरी होता है। बाहर तो कभी-कभी कुछ भी अंतर्मुखी और बहिर्मुखी होते हैं। हमारा युग बहिर्मुखी युग है, बुदबुदे आ जाते हैं। असली जीवन तो भीतर होता है। कभी कुछ एक्सट्रोवर्ट एज! उपनिषद के ऋषियों का युग अंतर्मुखी युग है, बाहर फूट जाता है, प्रासांगिक-अनिवार्य नहीं है। अधिक | इंट्रोवर्ट एज। कविताएं तो भीतर ही उठती हैं और खो जाती हैं। लाख कविताएं | "मैंने कहा, जैसे व्यक्तियों में भेद होता है, ऐसे युगों में भी भेद पैदा होती हैं रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति में, तो एक प्रकट हो पाती है। | होता है। युग के भेद का मतलब यह है कि अंतर्मुखी युग में ऐसा वह भी अधूरी, पंगु। वह भी कभी पूरी प्रकट नहीं हो पाती। उससे | नहीं कि बहिर्मुखी लोग नहीं होते। अंतर्मुखी युग में भी बहिर्मुखी भी रवींद्रनाथ कभी तृप्त नहीं होते।
| लोग होते हैं, लेकिन न्यून, प्रभावहीन। प्रभाव अंतर्मुखी लोगों का अंतर्मुखी आदमी के जीवन की धारा भीतर घूमती है; बाहर कर्म | | होता है। शिखर पर वे ही होते हैं। बहिर्मुखी युग में भी अंतर्मुखी के जगत में उसके बहुत कम स्पर्श होते हैं। बहिर्मुखी व्यक्ति की लोग होते हैं, लेकिन न्यून और प्रभावहीन। शिखर पर बहिर्मुखी जीवन-धारा भीतर होती ही नहीं; उसके जीवन की सारी धारा बाहर लोग होते हैं। घूमती है—अंतर्संबंधों में, संघर्षों में। बाहर के जगत में उसकी छाप | | सोचें। उपनिषद के युग में लौटें एक क्षण को। तो गांव के होती है। पानी पर नहीं, वह पत्थर पर लकीरें खींचता मालम पड़ता भिखारी ब्राह्मण के चरण भी सम्राट छता। क्यों है। हालांकि लंबे अर्से में पत्थर भी पानी हो जाते हैं। लेकिन | पर था। सम्राट से ज्यादा बहिर्मुखी और कौन होगा? लेकिन गांव प्राथमिक, आज, अभी, पत्थर पर खींची गई लकीर ठहरी हुई | | के भिखारी ब्राह्मण के चरण में भी सम्राट को सिर रखना पड़ता। मालूम पड़ती है।
शिखर पर! वह जो जीवन की लहर थी उस समय, अंतर्मुखी को इसलिए इस शर्त को समझ लेना आप। कृष्ण का यह वक्तव्य | शिखर पर लिए थी। नहीं था कुछ उसके पास, जिसकी बाहर से कंडीशनल है, शर्त के साथ है; अर्जुन को दिया गया है। इसलिए | | गणना की जा सके। न धन था, जो बाहर से गिना जा सके। न पद उन्होंने दोनों बातें कह दी हैं। दोनों मार्ग से पहुंच जाते हैं अर्जुन! | था, जो बाहर से समझा जा सके। न पदवी थी, जिसका बाहर से कर्म-संन्यास से भी सब कर्मों को छोड़कर जो निर्जरा को हिसाब बैठ सके। कोई कैलकुलेशन बाहर से नहीं हो सकता था, उपलब्ध हो जाता है, जैसे कोई महावीर। सब कर्म छोड़कर! या लेकिन भीतर कुछ था। और भीतर का मूल्य था। तो भिखारी के पैर निष्काम कर्म से-जैसे कोई जनक, सब कर्मों को करते हुए। | में भी सम्राट को बैठ जाना पड़ता। सम्राट थे; नहीं थे, ऐसा नहीं। लेकिन दूसरा मार्ग सरल है, सुगम है। यह अर्जुन को दृष्टि में | | धनपति थे; नहीं थे, ऐसा नहीं। बाहर के जगत में सक्रिय लोग थे; रखकर दिया गया वक्तव्य है।
नहीं थे, ऐसा नहीं। लेकिन अंतर्मुखी प्रमुख था; प्राधान्य था। उसके चरणों में ही सब झुक जाता। वह शिखर पर था।
आज हालत बिलकुल उलटी है। आज हालत, बिलकुल उलटी प्रश्नः भगवान श्री, आप इस बात पर जोर देते हैं कि है; आज देश का साधु भी हो, तो दिल्ली के चक्कर लगाता है!
आजकल के संन्यासियों को सक्रिय व सकर्म संन्यास | | अगर आज साधु को भी प्रतिष्ठा पानी है, तो किसी मंत्री से सत्संग में ही जीना चाहिए और आप कर्म-संन्यास को समाज | | साधना पड़ता है! मंत्री प्रतिष्ठित नहीं होते साधुओं से अब; अब
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