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________________ गीता दर्शन भाग-20 जो व्यक्ति अपने भीतर की इनर वॉइस, अंतर्वाणी को नहीं सुन | | भलीभांति परिचित हैं, मेहर बाबा। उन्होंने पिछले जीवन के अपने पाता, वह व्यक्ति कभी स्वधर्म के तप को पूरा नहीं कर पाएगा। यह | तीस वर्ष अंतर की आवाज को सुनने में ही लगाए। और अंतर की जो स्वधर्मरूपी यज्ञ की बात कृष्ण ने कही है, यह वही व्यक्ति परी आवाज को सुनने के लिए उन्होंने बाहर की सारी आवाज बंद कर कर पाता है, जो अपने भीतर की अंतर्वाणी को सुनने में सक्षम हो | दी। मौन हो रहे, बोलना बंद कर दिया। क्योंकि बोलें, तो बाहर की जाता है। वाणी का लेन-देन जारी रहता है। तो सब बंद कर दिया। लेकिन सब हो सकते हैं, सबके पास वह अंतर्वाणी का स्रोत है। | जैसा मैंने सुबह आपसे कहा कि अगर स्वाध्यायरूपी यज्ञ को जन्म के साथ ही वह स्रोत है, जीवन के साथ ही वह स्रोत है। बस, समझना हो, तो कृष्णमूर्ति के विगत चालीस वर्ष का समस्त हमें उसका कोई स्मरण नहीं। हमने कभी उसे टैप भी नहीं किया; | वक्तव्य स्वाध्यायरूपी यज्ञ के इस छोटे-से शब्द स्वाध्याय में समा हमने कभी उसे खटकाया भी नहीं; हमने कभी उसे जगाया भी नहीं। | जाता है। कृष्णमूर्ति का चालीस साल का सब कहा हुआ, गीता के हमने कभी कानों को प्रशिक्षित भी नहीं किया कि वे सूक्ष्म आवाज स्वाध्याय नामी यज्ञ की व्याख्या और भाष्य है, और कुछ भी नहीं। को पकड़ लें। समस्त, चालीस वर्षों का कहा हुआ, इस स्वाध्याय यज्ञ का भाष्य जीसस या बुद्ध या महावीर भीतर की आवाज से जीते हैं। भीतर है, कमेंट्री है। की आवाज जो कह देती है वही...। __ वैसे ही मैं आपसे कहता हूं, इस तीसरी बात के लिए, अंतर्वाणी इसमें एक बात और आपको खयाल दिला दूं कि भीतर की | | के सुनने के लिए मेहर बाबा ने इस सदी में जितना श्रम किया, उतना आवाज एक बार सुनाई पड़नी शुरू हो जाए, तो आपको अपना गुरु किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया है। और अंतर्वाणी को सुनने के मिल गया। वह गुरु भीतर बैठा हुआ है। लेकिन हम सब बाहर गुरु लिए, स्वधर्म की आवाज को सुनने के लिए जो गहरे से गहरा तप को खोजते फिरते हैं। गुरु भीतर बैठा हुआ है। | किया जा सकता था, वह यह था कि वाणी ही उन्होंने छोड़ दी, शब्द परमात्मा ने प्रत्येक को वह विवेक, वह अंतःकरण, वह ही छोड़ दिए; मौन हो रहे बाहर से, ताकि शब्द का लेन-देन बंद कांसिएंस, वह अंतर की वाणी दी है, जिससे अगर हम पूछना शुरू हो जाए। ताकि अंततः कभी जरा-सी भी भूल न हो, किं भीतर की कर दें, तो उत्तर मिलने शुरू हो जाते हैं। और वे उत्तर कभी भी गलत आवाज और बाहर की आवाज में कहीं भी कोई संदेह और संभ्रम, नहीं होते। फिर वह रास्ता बनाने लगता है भीतर का ही स्वर, और | कोई कनफ्यूजन पैदा न हो। बाहर की आवाज ही बंद कर दी, ताकि तब हम स्वधर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं। | निपट भीतर की आवाज से जीया जा सके। अंतर्वाणी को सुनने की क्षमता ही स्वधर्मरूपी यज्ञ का मूल फिर बहुत-सी घटनाएं उनके जीवन में हैं, एक-दो मैं कहूं, आधार है। जिससे खयाल आ सके कि अंतर की आवाज...। इसलिए कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि मैंने इसके पहले दो यज्ञ हैदराबाद के पास उन्होंने एक छोटा-सा आश्रम बनाया था। कहे, अब यह तीसरा यज्ञ कि स्वधर्मरूपी यज्ञ को भी यदि कोई पूरा बनकर तैयार हुआ। बड़ी प्रतीक्षा से बनाया था। फिर उसके द्वार कर ले. तो प्रभ के मंदिर में उसकी पहंच. सनवाई हो जाती है: द्वार तक गए—प्रवेश का दिन था-और ठीक दरवाजे पर खड़े होकर खुल जाते हैं; वह प्रवेश कर जाता है। वापस लौट आए और इशारा कर दिया कि उस मकान में वे प्रवेश लेकिन लगेगा कि शायद यह सरल हो, यह स्वधर्मरूपी यज्ञ! नहीं करेंगे। रात वह मकान गिर गया। कि ब्राह्मण अपनी पोथी पढ़ता रहे; चंदन, तिलक-टीका लगाता| | हिंदुस्तान से वे यूरोप जा रहे थे। हवाई जहाज से यात्रा। बीच में रहे; हवन-यज्ञ करवाता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है। कि शूद्र | हवाई जहाज सिर्फ फ्यूल भरने के लिए किसी एअरपोर्ट पर उतरा। सड़क पर झाडू लगाता रहे, कि गंदगी ढोता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर | | फिर हवाई जहाज उड़ने को हुआ। यात्रियों को खबर की गई। मेहर रहा है। कि क्षत्रिय युद्ध में लड़ता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है। | बाबा ने इनकार कर दिया कि वे उस पर सवार नहीं होंगे। नहीं; यह बहुत बाहरी और ऊपरी बात है। स्वधर्म की गहरी बात साथी उनके बड़ी परेशानी में पड़ते थे। शिष्य बड़ी मुश्किल में तो तभी पता चलेगी, जब भीतर की आवाज...। | पड़ जाते थे। अब यह बड़ी बेहूदगी हो गई! चलती यात्रा में, बीच इधर भारत में एक व्यक्ति थे, जो अभी चल बसे हैं। आप उनसे | । हवाई जहाज से उतर जाना, फिर कह देना कि नहीं जाएंगे। वह 11761
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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