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गीता दर्शन भाग-2
इसे कैसे गिराया जाए, वह मैंने जानकर छोड़ दिया। जानकर छोड़ा इसीलिए कि वह सब योग की बहुत सूक्ष्म प्रक्रियाएं हैं, जिनका सीधा कोई प्रयोजन नहीं है। वह तो पतंजलि के योग- शास्त्र पर बात हो, तभी विस्तार से उनकी बात हो सकती है। एक आखिरी श्लोक और ले लें।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति । सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ।। ३० ।। और दूसरे नियमित आहार करने वाले योगीजन प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं। इस प्रकार यज्ञों द्वारा नाश हो गया है पाप जिनका, ऐसे ये सब ही पुरुष यज्ञों को जानने वाले हैं।
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समें भी योग की दूसरी और प्रक्रिया का उल्लेख कृष्ण ने किया। वे प्रत्येक प्रक्रिया का उल्लेख करते जा रहे हैं। अर्जुन को जो भा जाए, जो प्रीतिकर लगे, जो रुचिकर बने। अर्जुन के टाइप को जो अनुकूल पड़ जाए।
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इसमें वे कहते हैं, नियमित, संयमित आहार करने वाले प्राण को प्राण में ही होम करते हैं। नियमित, संयमित आहार!
अब यह आहार बड़ा शब्द है और बड़ी घटना है। साधारणतः हम सोचते हैं कि भोजन आहार है । साधारणतः ठीक सोचते हैं। लेकिन आहार के और व्यापक अर्थ हैं।
आहार का मूल अर्थ होता है, जो भी बाहर से भीतर लिया जाए। आहार का अर्थ होता है, जो भी बाहर से भीतर लिया जाए। भोजन एक आहार है; आहार ही नहीं, सिर्फ एक आहार । क्योंकि भोजन को हम बाहर से भीतर लेते हैं। लेकिन आंख से भी हम चीजों को भीतर लेते हैं; वह भी आहार है। कान से भी हम चीजों को भीतर लेते हैं; वह भी आहार है। स्पर्श से भी हम चीजों को भीतर लेते हैं; वह भी आहार है।
शरीर के भीतर जो भी हम बाहर से लेते हैं, वह सब आहार है। जो भी हम रिसीव करते हैं बाहर से, जिसके हम ग्राहक हैं, जिसे भी हम बाहर से भीतर ले जाते हैं, वह सब आहार है।
संयमित, नियमित आहार का मतलब हुआ, जो व्यक्ति अपने इंद्रियों के द्वार से उसे ही भीतर ले जाता — उसे ही भीतर ले
जाता-जो प्राणों को प्राणों में समर्पित होने में सहयोगी है। हम इस तरह की चीजें भी भीतर ले जा सकते हैं, जो प्राणों को प्राणों में समाहित न होने दें, बल्कि प्राणों को उद्वेलित करें, उत्तेजित करें, विक्षिप्त करें।
दो तरह के आहार हो सकते हैं। ऐसा आहार, जो प्राणों को उत्तेजित करे- शांत नहीं, मौन नहीं, निस्पंद नहीं- आंदोलित करे, पागल बनाए, दौड़ाए। और जब प्राण दौड़ते हैं, तो फिर बाहर की तरफ, विषयों की तरफ दौड़ जाते हैं। और जब प्राण नहीं दौड़ते, ठहरते हैं, विश्राम करते हैं, विराम करते हैं, तो फिर प्राण महाप्राण में लीन हो जाते हैं। जैसे लहर जब दौड़ती है, तो सागर में लीन नहीं | होती; वायुमंडल की तरफ छलांगें भरती है; आकाश की तरफ हवाओं में टक्कर लेती है, उछलती है, चट्टानों से किनारे की टकराती है, टूटती है। लेकिन जब लहर शांत होती है, तो लहर सागर में लीन हो जाती
आहार दो तरह के हो सकते हैं। प्राणों को उत्तेजित करें। हम ऐसे ही आहार लेते हैं, जो उत्तेजित करें। एक आदमी शराब पी लेता है, तो फिर प्राण प्राण में लीन नहीं हो पाएंगे। फिर तो प्राण पागल होकर | पदार्थ के लिए दौड़ने लगेंगे - किसी और के लिए, बाहर, हवाओं में कूदने लगेंगे, तो किनारों की चट्टानों से टकराने लगेंगे।
शराब उत्तेजक है। लेकिन शराब अकेली उत्तेजक नहीं है। जब कोई आंख से गलत चीज देखता है, तो भी उतनी ही उत्तेजना आ जाती है।
अब एक आदमी बैठा हुआ है तीन घंटे तक, नाटक देख रहा है, फिल्म देख रहा है। और इस तरह का आहार कर रहा है जो | उत्तेजना ले आएगा भीतर; जो चित्त को चंचल करेगा, भगाएगा, दौड़ाएगा; रातभर सो नहीं सकेगा; सपने में भी मन वहीं नाट्य-गृह में घूमता रहेगा। आंख बंद करेगा और वे ही दृश्य दिखाई पड़ने लगेंगे, वे ही छवियां पकड़ लेंगी। अब वह दौड़ा। अब वह बेचैन | हुआ। अब वह परेशान हुआ।
अभी अमेरिका के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अब जब तक अमेरिका में फिल्म टेलीविजन हैं, तब तक कोई पुरुष किसी स्त्री से तृप्त नहीं होगा और कोई स्त्री किसी पुरुष से तृप्त नहीं होगी। क्यों? क्योंकि टेलीविजन ने और सिनेमा के पर्दे ने स्त्रियों और पुरुषों की ऐसी प्रतिमाएं लोगों को दिखा दीं, जैसी प्रतिमाएं यथार्थ | में कहीं भी मिल नहीं सकतीं ; झूठी हैं, बनावटी हैं। फिर यथार्थ में जो पुरुष और स्त्री मिलेंगे, वे बहुत फीके - फीके मालूम पड़ते हैं।
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