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जीवन एक लीला
ऐसे ही मूर्तिकार ने मूर्ति को जन्म दे दिया। मूर्ति अलग हो गई। मूर्ति | परमात्मा एक बवंडर की तरह अस्तित्व है। बीच में कोई मैं नहीं जन्मते ही तू हो गई। मूर्तिकार अब मूर्ति को मैं नहीं कह सकता, है, वहां सब बीच में शून्य है। चारों तरफ अस्तित्व की विराट अब उसको तू ही कहना पड़ेगा। अब मूर्ति का अपना अस्तित्व है। लीला है।
लेकिन एक नृत्यकार है, एक डांसर है। वह नाचता है। नाच इसीलिए हम जगत को परमात्मा की लीला कहते हैं। सृष्टि से भी अलग नहीं हो पाता। कितना ही नाचे, तो भी नृत्य और नर्तक एक सुंदर शब्द है वह, लीला, प्ले। क्योंकि खेल में अहंकार नहीं होता। ही रहते हैं। इसलिए हमने परमात्मा को नृत्य करते हुए नटराज की हमें हो जाता है। और जब खेल में अहंकार हो जाता है, तो खेल तरह सोचा; मूर्ति बनाते हुए नहीं सोचा; चित्र बनाते हुए नहीं सोचा। काम हो जाता है, फिर खेल नहीं रह जाता। हमें तो खेल में भी हो नृत्य करते हए सोचा। उसका गहरा रहस्य है। उसका कल कारण जाता है। दो आदमी ताश भी खेल रहे हों, तो अकड़ आ जाती है। यह है कि जैसे नर्तक और नत्य एक ही हैं: अगर नर्तक रुक जाए. शतरंज भी खेल रहे हों, तो तलवारें खिंच जाती हैं। हमें तो खेल में तो नृत्य रुक जाएगा। और बड़े मजे की बात है, अगर नृत्य रुक जाए, भी अहंकार आ जाता है, हार-जीत जोर से पकड़ जाती है। फिर वह तो नर्तक नर्तक नहीं रह गया; क्योंकि नर्तक तभी तक नर्तक है, जब खेल नहीं रहा, फिर तो वह काम ही हो गया; दुकान ही हो गई। तक नृत्य चल रहा है। नर्तक और नृत्य के बीच एक एकात्मता है; खेल तभी तक है, जब तक भीतर मैं नहीं है। लीला चल रही है। एक ही हैं वे। नर्तक नृत्य को अलग रखकर तू नहीं कह सकता और हारे, तो भी ठीक है; जीते, तो भी ठीक है। कोई खास फर्क नहीं न नर्तक नृत्य को अलग रखकर नर्तक रह सकता है।
पड़ता। हां, कभी-कभी ऐसा होता है। अगर बाप कभी बच्चे के तो परमात्मा के और सृष्टि के बीच जो संबंध है, वह नर्तक साथ खेल खेलता है, तो ऐसा होता है। बाप बच्चे के साथ खेल और नृत्य का है। न तो परमात्मा स्रष्टा रह सकता है सृष्टि को बंद खेलता है, तो ऐसा होता है, क्योंकि बच्चे के साथ अहंकार पकड़ने करके—इसलिए बंद ही नहीं कर सकता; नहीं तो स्रष्टा नहीं रह | में बाप को भी नासमझी मालूम पड़ती है। फिर हारने की, जीतने की जाएगा। बंद होना होगा ही नहीं। सृष्टि शाश्वत चलती ही रहेगी। | फिक्र नहीं करता। कई दफे तो खुद ही हार जाता है, क्योंकि बच्चा क्योंकि स्रष्टा और सष्टि एक हैं। दि क्रिएटर एंड दि क्रिएशन आर नहीं तो जीतेगा कैसे? खुद लेट जाता है; बच्चे को छाती पर बिठा वन। नर्तक और नृत्य की भांति। इसलिए सृष्टि को भी परमात्मा लेता है; और बच्चा खुशी से भर जाता है। और बच्चे की जीत की तू नहीं कह सकता। वहां भी तू के लिए कोई उपाय नहीं है, खुशी बाप की भी खुशी बन जाती है-हारकर। अब यह खेल है। गुंजाइश नहीं है, अवकाश नहीं है, जगह नहीं है, जहां वह तू को __परमात्मा के लिए जगत एक खेल है। कई बार हमें जिताता भी खड़ा कर सके।
है। बस, बच्चे की तरह। कई बार हम उसकी छाती पर भी होते हैं; इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सब करते हुए भी मैं अकर्ता हूं। कर्ता पर बच्चे की तरह। भीतर उसके लिए कोई अहंकार नहीं है। ऐसी मुझे नहीं पकड़ पाता। मैं मुझे नहीं पकड़ पाता। कर्म अहंकार को
निरहंकार स्थिति की घोषणा. कष्ण ने इस वचन में की है। उसे निर्मित नहीं कर पाते हैं।
समझें। और धीरे से वह जीवन में कभी उतर आए, तो बड़ा करीब-करीब ऐसे ही, जैसे कभी गर्मी के दिनों में देखा हो सौभाग्य है। अंधड़। कभी हवा का तेज अंधड़ आता है गर्मी के दिनों में। धूल का बवंडर उठता है वर्तुलाकार। धूल के आकाश में बवंडर ऊंचे उठते चले जाते हैं। जब बवंडर चला जाए, तो जाकर जमीन को न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । देखना, तो बहुत हैरानी होगी। बड़ा बवंडर था, बड़ा तूफान था। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते । । १४ ।। निशान बन गए होंगे जमीन पर, उसके घूमने के। लेकिन बीच में कों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मेरे को कर्म एक सूनी खाली जगह भी होगी-शून्य; जहां कोई निशान नहीं लिपायमान नहीं करते। इस प्रकार जो मेरे को तत्व से होगा। उसी शून्य पर सारा बवंडर घूमा। जैसे कील पर चाक घूमता जानता है, वह भी कमों से नहीं बंधता है। है। उस खाली शून्य पर सारे बवंडर का तूफान आया; बीच में सब शून्य था।