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| गीता दर्शन भाग-21000
मूर्च्छा के कारण मैं मिटता है; और समाधि में व्यक्ति की सजगता कारण मैं मिटता है।
मैं मौजूदगी के लिए तू का होना जरूरी है। तू के बिना मैं के बनने का कोई उपाय नहीं है। मैं और तू पोलेरिटी है। जैसे कि बिजली ऋण और धन के बिना नहीं हो सकती । पाजिटिव इलेक्ट्रिसिटी अकेली नहीं हो सकती, निगेटिव के बिना। निगेटिव अकेली नहीं हो सकती, पाजिटिव के बिना । जैसे इस पृथ्वी पर पुरुष अकेले नहीं हो सकते, स्त्रियों के बिना स्त्रियां अकेली नहीं हो सकतीं, पुरुषों के बिना।
आपको शायद खयाल न आया हो, जब स्त्री आपके सामने मौजूद होती है, तब आपके भीतर का पुरुष बहुत सक्रिय हो जाता है। जब स्त्री मौजूद नहीं होती, तब निष्क्रिय हो जाता है। जब स्त्री
सामने पुरुष मौजूद होता है, तब स्त्रैणता आ जाती है; जब पुरुष नहीं रह जाता, तो स्त्रैणता विलीन हो जाती है।
दूसरा पोल सदा मौजूद चाहिए। मैं का दूसरा हिस्सा तू है । मैं और तू एक ही घटना के दो छोर हैं; जैसे एक ही डंडे के दो छोर । अगर तू गिर जाए, तो भी मैं गिर जाता है; अगर मैं गिर जाए, तो भी तू गिर जाता है। परमात्मा के लिए कोई तू नहीं है। इसलिए मैं के बनने का कोई उपाय नहीं है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, विशेषकर पश्चिम का एक मनोवैज्ञानिक पियागेट, जिसने पूरी जिंदगी, बच्चों में मैं का भाव कैसे पैदा होता है, इस पर समर्पित की है; उसकी बड़ी हैरानी की खोजें हैं। वह कहता है कि बच्चे में मैं का भाव बाद में पैदा होता है, तू का भाव पहले पैदा होता है। बच्चे को पहले दूसरों का पता चलता है, फिर अपना पता चलता है। ठीक भी यही है। बच्चे को पहले पता चलता है और लोगों का
इसलिए अक्सर बच्चे ऐसा नहीं कहते कि मुझे भूख लगी है। छोटा बच्चा कहता है, इसको भूल लगी है। यह भी उसके लिए दि अदर, और की तरह मालूम पड़ता है। छोटे बच्चे अक्सर अपना नाम लेते हैं, वे कहते हैं, बबलू को भूख लगी है! उनका नाम बबलू है। वे ऐसा नहीं कहते, मुझे भूख लगी है। अभी मुझे का भाव बहुत गहरा नहीं हुआ है। अभी बबलू भी थर्ड पर्सन है। कहता है, बबलू को नींद आ रही है।
पियागेट कहता है कि बच्चों को पहले तू का पता चलता है; फिर धीरे-धीरे मैं का पता चलता है। इसलिए बच्चे इतने भोले मालूम पड़ते हैं, क्योंकि मैं का पता चलने में जरा देर है अभी। अभी मैं का
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छोर निर्मित हो रहा है। जब निर्मित हो जाएगा, तो बच्चे कठिन और | कठोर हो जाएंगे।
इसलिए जब बच्चों में पहली दफा मैं पैदा होता है, तब रिबेलियन पैदा होता है। इसलिए एक उम्र है बच्चों की, जो रिबेलियन की है, विद्रोह की है, बगावत की है। जब पहली दफे बच्चे में मैं आता है, तब वह सब तरफ मैं की परीक्षा करता है। बाप | के खिलाफ, मां के खिलाफ, गुरु के खिलाफ वह मैं की परीक्षा करता है - मैं हूं ।
तो अगर मां कहती है कि यह मत करो, तो वह करके दिखाता है; नहीं तो पता कैसे चले कि मैं हूं ! अगर बाप कहता है, वहां मत जाओ, तो वह जाकर बताता है; नहीं तो पता कैसे चले कि मैं हूं? इसलिए बड़ी स्वाभाविक बात है कि बच्चे कुछ दिनों मां-बाप के खिलाफ लड़ते हैं। वह खिलाफ लड़कर ही, वे अपनी ईगो को मजबूत करते हैं।
यह मैंने इसलिए कहा कि परमात्मा के लिए मैं का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि तू का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं करता हुआ भी अकर्ता हूं। मैं होते हुए भी न होने जैसा हूं । हूं, और फिर भी मैं नहीं हूं। क्योंकि तू का तो कोई उपाय नहीं है। परमात्मा किसको कहे तू? कोई उपाय नहीं है। इसलिए भी उनका यह वचन बहुत अर्थपूर्ण है। और एक तीसरे अर्थ में भी।
परमात्मा के लिए अस्तित्व ऐसे ही है, जैसे हमारे लिए शरीर । एक आर्गेनिक यूनिटी है। मैं अपने हाथ को तू नहीं कहता; मैं अपने हाथ को मैं ही कहता हूं। मैं अपने पैर को तू नहीं कहता; मैं अपने पैर को मैं ही कहता हूं। मेरा शरीर मेरा ही विस्तार है। परमात्मा के लिए समस्त अस्तित्व उसका ही विस्तार है। वही है। इसलिए जब परमात्मा कुछ निर्माण भी करता है, सृजन भी करता है, क्रिएट भी करता है, तो वह सृजन भी पराए का सृजन नहीं है। उस सृजन को भी समझ लेना उचित है।
एक चित्रकार एक चित्र बनाता है। तो जब चित्रकार चित्र बनाता है, तो चित्र अलग हो जाता है, चित्रकार अलग हो जाता है। फिर चित्रकार मर भी जाए, तो भी चित्र नहीं मरेगा; चित्र बना रहेगा। चित्र का अपना अस्तित्व हो गया। एक मूर्तिकार मूर्ति निर्माण करता है। मूर्ति अलग बन गई। मूर्तिकार न भी रहे, तो अब मूर्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे मां ने बेटे को जन्म दे दिया; अब मां मर जाएगी, तो भी बेटा रहेगा। अब बेटे का अस्तित्व अलग हो गया।