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अहंकार की छाया है ममत्व
बड़े हों... ।
मैंने सुना है, एक दिन सुबह-सुबह एक लोमड़ी शिकार के लिए निकली है। चली है शिकार को देखा है कि उसकी बड़ी लंबी छाया बनती है। सूरज निकल रहा है पीछे, बड़ी लंबी छाया है! उस लोमड़ी ने अपनी छाया देखी और सोचा, आज तो एक ऊंट शिकार को मिल जाए, तभी काम चलेगा! स्वभावतः, इतनी बड़ी छाया बनती है, तो लोमड़ी छोटी नहीं हो सकती! लोमड़ी के तर्क में कहीं कोई गलती नहीं है। गणित ठीक है। इतनी बड़ी छाया बन रही है कि एक ऊंट मिले शिकार में, तो ही काम चल सकेगा, लोमड़ी ने सोचा ।
दिनभर खोजते दोपहर हो गई है। शिकार मिला नहीं। सूरज सिर पर आ गया है। लोमड़ी भूखी है। नीचे की तरफ देखा, छाया बड़ी छोटी बनती है, न के बराबर । उसने कहा, क्या हुआ ! क्या भूख में मैं इतनी सिकुड़ गई ? अब तो एक चींटी भी मिल जाए, तो शायद काम चल जाए !
लोमड़ी का तर्क ठीक है। हम अपनी छाया से ही सोचते हैं कि हम कितने बड़े हैं। छाया नाप लेते हैं, सोच लेते हैं कि इतने बड़े हैं। अगर छाया बड़ी है मेरे की— मेरा मकान बड़ा है, तो मैं बड़ा; और अगर मेरा मकान छोटा है, तो मैं छोटा। मेरे धन का ढेर बड़ा है, तो मैं बड़ा और मेरे धन का ढेर छोटा है, तो मैं छोटा । मुझे नमस्कार करने वाले लोग ज्यादा हैं, तो मैं बड़ा; और मुझे नमस्कार करने वाले लोग थोड़े हैं, तो मैं छोटा ! छाया !
और जिंदगी के शुरू में सभी को वही भूल होती है, जो उस लोमड़ी को हुई थी। जब जिंदगी शुरू होती है, तो हर आदमी सोचता है कि मैं ! मेरे जैसा कोई भी नहीं । सारी जमीन भी छोटी पड़ेगी । और जब जिंदगी अंत होने के करीब आती है, तो पता चलता है कि अब तो कुछ भी नहीं रहा, छाया सिकुड़ गई है!
हम छाया को देखकर जीते हैं, इसलिए हम छाया को बढ़ाते रहते हैं, बड़ा करने की कोशिश में लगे रहते हैं। मेरे का अर्थ है, मैं की छाया, शैडो आफ दि ईगो । झूठा है। ध्यान रहे, कोई' झूठ खड़ा करना हो, तो और पच्चीस झूठ का सहारा लेना पड़ता है। सत्य को खड़ा करना हो, तो सत्य अकेला खड़ा हो जाता है, इंडिपेन्डेंट, स्वतंत्र । कोई झूठ अकेला खड़ा नहीं होता। किसी झूठ को आप अकेला कभी खड़ा नहीं कर सकते; उसको तो बैसाखियां लगानी पड़ती हैं और नए झूठों की ।
झूठ को खड़ा करना हो, तो पच्चीस झूठों का जाल खड़ा करना पड़ता है। और ऐसा नहीं है कि बात यहीं समाप्त हो जाती है। वे
जो पच्चीस झूठ आपने खड़े किए, प्रत्येक उनमें से एक के लिए भी पच्चीस । और यह इनफिनिट रिग्रेस है। और यह रोज करते रहना पड़ेगा ।
मैं बड़ा से बड़ा झूठ है मनुष्य की जिंदगी में। अगर इस अस्तित्व में किसी को मैं कहने का हक हो सकता है न्यायसंगत, तो वह | सिवाय परमात्मा के और किसी को नहीं हो सकता है। लेकिन उसने कभी कहा नहीं कि मैं हूं। लोग बहुत दफे चिल्लाकर पूछते हैं, कहां हो तुम? तो भी बोलता नहीं। लोग खोजने भी निकल जाते हैं, पहाड़ की कंदराओं को खोद डालते हैं, नदियों के उदगम तक चले जाते हैं, सारी जमीन छान डालते हैं, आकाश-पाताल एक कर देते हैं, फिर भी उसका पता नहीं चलता कि कहां है वह !
जिसे अधिकार है कहने का कि कह सके मैं, वह चुप है। और जिन्हें कोई अधिकार नहीं है, वे जिंदगीभर सुबह से सांझ तक बोलते रहते हैं - मैं, मैं, मैं शायद इसीलिए परमात्मा नहीं बोलता, | क्योंकि वह आश्वस्त है कि है । और हम इसीलिए बोलते हैं कि हमें कोई भरोसा नहीं है । बोल-बोलकर भरोसा पैदा करते रहते हैं कि हूं! चौबीस घंटे दोहरा दोहराकर भरोसा पैदा करते रहते हैं अपने ही मन में, आटोहिप्नोटिक, खुद को सम्मोहित करते रहते हैं कि मैं हूं। इसलिए अगर कोई आपके मैं को जरा-सी भी चोट पहुंचा दे, तो आप तिलमिला उठते हैं। क्योंकि आपका झूठ बिखर सकता हैं।
इस मैं के बड़े झूठ को खड़ा करने के लिए मेरे का जाल फैलाना | पड़ता है, उसको कृष्ण ममत्व कहते हैं। मेरे का जाल ।
मैं अकेला खड़ा नहीं रह सकता। अगर आपसे आपका मकान छीन लिया जाए, तो आप यह मत सोचना कि सिर्फ मकान छिना, आपके मैं की भी दीवालें गिर गई हैं। अगर आपसे आपका धन छीन लिया जाए, तो सिर्फ तिजोड़ी खाली नहीं होती, आप भी खाली हो जाते हैं। आपसे आपका पद छीन लिया जाए, तो पद ही नहीं छिनता, आपके भीतर की अकड़ भी छिन जाती है।
वह मैं मेरे के छिनने से क्षीण होता है। मेरे के बढ़ने से बड़ा होता है । तो जिसे भी धोखे में रखना है अपने को कि मैं हूं, उसे मेरे को बनाए जाना चाहिए, बढ़ाए जाना चाहिए। और जिसे धोखा तोड़ना हो, उसे ममत्व को छोड़कर देखना चाहिए कि मेरे को छोड़कर मैं बचता हूं?
जिसने मेरे को छोड़ा, वह अचानक पाता है, मैं भी खो गया । और जब तक मैं न खो जाए, तब तक कर्मों की धारा बंद नहीं होती। और जब तक मेरा न खो जाए और मैं न खो जाए, तब तक ऊर्ध्व
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