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तीन सूत्र-आत्म-ज्ञान के लिए
है? मेरे पहले कोई आया, उसका स्वागत हुआ। क्या यहां भी हम । ठीक ऐसे ही जब कोई अहंकार परमात्मा की आग में अपने को गरीबों के साथ ज्यादती और अन्याय चलता है?
छोड़कर जलता जाता है, जलता जाता है, जलने को राजी हो जाता द्वारपाल ने कहा, ऐसा नहीं है। तुम्हारे जैसे गरीब तो रोज यहां | | है, तदरूप हो जाता है; तो ही–तो ही—उस जगह पहुंचता है, आते हैं। तुम्हारे जैसे विनम्र, जो दरवाजा नहीं खटखटाते और जहां से कोई वापसी नहीं है। किनारे पर प्रतीक्षा करते रहते हैं; तुम्हारे जैसे विनम्र तो रोज आते | और उस जगह पहुंचे बिना जीवन में न कोई आनंद है, न कोई हैं। यह जो आदमी अभी भीतर गया है, एक महापंडित है। यह बड़ा | अमृत है, न कोई रस है, न कोई सौंदर्य है, न कोई संगीत है। उसी ज्ञानी था। ऐसे ज्ञानी सौ, दो सौ, चार सौ, पांच सौ वर्ष बीत जाते क्षण से संगीत शुरू होता, उसके पहले शोरगुल है। उसी क्षण से हैं, तब कभी-कभी आते हैं। इसलिए उसका स्वागत किया गया है। | अमृत शुरू होता, उसके पहले मृत्यु ही मृत्यु की कथा है। उसी क्षण यह बड़ी रेयर घटना है। तुम्हारे जैसे विनम्र लोग तो रोज आते हैं। से प्रकाश शुरू होता, उसके पहले अंधकार और अंधकार है। उसी लेकिन ऐसा महापंडित कभी दो-चार सौ साल में एक बार आता | | क्षण से जीवन उत्सव बनता। है। इसलिए स्वागत किया गया है। यह जरा विशेष घटना थी। जिस क्षण से मैं खोता हूं, उसी क्षण से जीवन एक फेस्टिविटी
वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि पंडित तो हम सोचते हैं | है—एक उत्सव, एक नृत्य, एक आनंदमग्नता, एक एक्सटैसी, कि सदा जाते होंगे। हम दीन-हीन, न समझने वाले नर्क में पड़ते | | एक समाधि, एक हर्षोन्माद। उसके पहले तो जीवन सिर्फ कांटों से होंगे! उस द्वारपाल ने कहा कि पृथ्वी में बहुत तरह की भूलों में यह चुभा हुआ है। उसके पहले तो जीवन सिर्फ बिंधा हुआ है पीड़ाओं एक भूल भी प्रचलित है।
| से, संताप से, सड़ता हुआ। उसके पहले तो जीवन एक दुर्गंध है, पंडित को इतना खयाल होता है कि मैं जानता हूं कि स्वर्ग में | | और एक विसंगीत है; एक विक्षिप्तता, एक पागलपन है। 'प्रवेश बड़ा मुश्किल है। अज्ञानी भी एक बार प्रवेश कर सकता है, | | कृष्ण कहते हैं, ऐसा हो सकता है अर्जुन। अंतःकरण हो शुद्ध, विनम्र हो तो। क्योंकि जो विनम्र है, वह अज्ञानी न रहा। क्योंकि जो | | आत्मा ने जागकर पाया हो ज्ञान, हो गई हो तदरूप परमात्मा के विनम्र है, वह तभी हो सकता है, जब अहंकार को छोड़ने का | साथ; खो दी हो ज्योति ने अपने को परम प्रकाश में, तो फिर कोई सामर्थ्य आ गया हो।
लौटना नहीं है। ज्ञानी भी प्रवेश नहीं कर सकता, अगर अविनम्र है। क्योंकि जहां अविनम्रता है और अहंकार है, वहां तो ज्ञान का सिर्फ दंभ होगा, भ्रम होगा, ज्ञान हो नहीं सकता है।
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । मैं से जो मुक्त होने को तैयार है, वही केवल मोक्ष में प्रवेश पाता शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।। १८।। है। यह जो मैं से मुक्ति है—मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति—इसमें इहैव तैर्जितः सगों येषां साम्ये स्थितं मनः । ही तदरूप हो जाता है आदमी। तदरूप! एक ही।
निदोष हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।। १९ ।। जिंदगी में कहां आपको तदरूपता दिखाई पड़ती है? कहीं
ऐसे वे ज्ञानीजन विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में, तथा गौ, आपने तदरूपता देखी जिंदगी में, जहां कोई चीज वही हो जाती
हाथी, कुत्ते और चांडाल में भी समभाव से हो, जो है? आग जलाते हैं। थोड़ी ही देर में थोड़ी ही देर
देखने वाले ही होते हैं। में लकड़ियां जलती हैं और आग के साथ एक हो जाती हैं। राख इसलिए जिनका मन समत्वभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस पड़ी रह जाती है।
जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया, इसलिए अग्नि को बहुत पहले समस्त दुनिया के धर्मों ने एक क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है। प्रतीक की तरह चुन लिया। उसमें लकड़ी जलकर आग के साथ इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित है। एक हो जाती है। इसलिए अग्नि यज्ञ बन गई। पारसियों ने अग्नि को चौबीस घंटे जलाकर पवित्र पूजा का स्थल बना लिया। क्योंकि अग्नि में लकड़ी जलकर तदरूप होती रहती है।
ना हो जिसे प्रभु को, उसे प्रभु जैसा हो जाना पड़ेगा।
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