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गीता दर्शन भाग-20
पाने की एक ही शर्त है, जो पाना हो, उस जैसा ही हो जाना पड़ता जिस चीज से आपके भीतर जितनी ज्यादा विषमता पैदा होती हो, है। यह शर्त गहरी है। और यह नियम शाश्वत है। और जीवन के | | जानना, वह उतनी ही अधर्म है। अधर्म की एक कसौटी है, जिससे समस्त तलों पर लागू है।
उत्तेजना और विषमता पैदा होती हो। धर्म की भी एक कसौटी है, अगर किसी व्यक्ति को धन पाना है, तो थोड़े दिन में पाएंगे कि | जिससे समता और संतुलन निर्मित होता हो। ऐसी घड़ी भीतर आ वह आदमी भी धातु का ठीकरा हो गया। अगर किसी व्यक्ति को | जाए कि आपका हृदय दो पलड़ों की तरह ठहर जाए, तराजू सम हो पद पाना है, तो थोड़े दिन में पाएंगे कि उस आदमी में और कुर्सी | | जाए। कोई भी पल्ला न नीचे हो, न ऊपर हो। वजन किसी पर न रह की जड़ता में कोई फर्क नहीं रहा। असल में हमें जो भी पाना है, | | जाए। दोनों पल्ले समान आ जाएं। ऐसी तराजू की स्थिति आ जाए जाने-अनजाने हमें वही बन जाना पड़ता है। बिना बने, हम पा नहीं | | सम, उसी क्षण परमात्मा से तदरूपता सधनी शुरू हो जाती है। सकते। हम वही पा सकते हैं, जो हम बनते हैं। जो भी हम चाहते | लेकिन हमारा मन सदा ही कहीं न कहीं झुका रहता है—किसी हैं इस जगत में, इस जगत के पार, हम वही बन जाते हैं। | पक्ष में, किसी वृत्ति में, किसी लोभ में, किसी वासना में-कहीं न
इसलिए आदमी के चेहरे पर, आंखों में, हाथों में, वह सब कहीं झुका रहता है। हम किसी के खिलाफ और किसी के पक्ष में लिखा रहता है, वह जो उसकी खोज है, वह जो पाना चाहता है। | झुके रहते हैं। किसी के विपरीत और किसी के अनुकूल झुके रहते
आदमी को देखकर कहा जा सकता है, वह क्या पाना चाहता है। हैं। किसी के विकर्षण में और किसी के आकर्षण में झुके रहते हैं। क्योंकि उसके सारे भावों पर, उसकी चमड़ी पर सब अंकित हो गया | हम सदा ही झुके रहते हैं। और यह झुकाव चौबीस घंटे बदलता होता है।
रहता है। चौबीस घंटे! हमें भी पक्का नहीं होता कि ऊंट.सांझ तक परमात्मा को जिसे पाना है, उसे परमात्मा जैसा हो जाना पड़ेगा। | किस करवट बैठेगा। दिन में बहुत करवट बदलते हैं। परमात्मा के क्या मौलिक लक्षण हैं?
यह जो चित्त की दशा है विषम, यह परमात्मा की तरफ ले जाने एक, कि परमात्मा सम है, विषम नहीं है। समता की स्थिति है | | वाली नहीं बन सकती है। परमात्मा, संतुलन की, दि एब्सोल्यूट बैलेंस। सब चीजें सम हैं | परमात्मा है सम, समता। अगर वैज्ञानिक शब्दों में कहें, तो परमात्मा में। कोई लहर भी नहीं है, जो विषमता लाती हो। सब! समत्व। परमात्मा शब्द को छोड़ा जा सकता है। इतना ही कहना जैसे कि तराजू के दोनों पलड़े बिलकुल एक जगह पर हों, कंपन काफी है कि जीवन का जो मूल स्वभाव है, वह समत्व है। वहां सब भी न होता है। जैसे वीणा के तार बिलकुल सधे हों। न बहुत ढीले | समान है। हों, न बहुत खिंचे हों। ऐसी समता परमात्मा का स्वरूप है। जिस व्यक्ति को परमात्मा की यात्रा करनी है, उसे चौबीस घंटे
जिसे भी परमात्मा को पाना है, उसे समता की तरफ बढ़ना | | ध्यान में रखना चाहिए कि वह समत्व खोता है या बढ़ाता है ! ऊपर पड़ेगा। कोई चाहे कि मैं विषम रहकर और परमात्मा को पा लूं, तो | | से बहुत अंतर नहीं पड़ता, असली सवाल भीतर जानकारी का है। नहीं पा सकेगा। विषम रहकर परमात्मा को पाना असंभव है। ऊपर हो सकता है कि एक आदमी सम मालूम पड़े और भीतर
इसीलिए जो आदमी क्रोध में, लोभ में, काम में, घृणा में, ईर्ष्या विषम हो। इससे विपरीत भी हो सकता है। कृष्ण जैसा आदमी जब में डूबता है, वह परमात्मा की तरफ नहीं बढ़ पाएगा। क्योंकि ये | चक्र हाथ में ले ले सुदर्शन, तो बाहर से तो लोगों को लगेगा ही कि सब चीजें मन को विषम करती हैं, उत्तेजित करती हैं, आंदोलन विषम हो गया, पर भीतर सम है। करती हैं. सम नहीं करती हैं। इसलिए जो आदमी करुणा में, प्रेम असली सवाल भीतर है। इसलिए दसरे का सवाल नहीं है। में, क्षमा में, दान में, दया में विकसित होगा, वह धीरे-धीरे | | प्रत्येक को अपने भीतर देखते रहना चाहिए कि मैं समता को बढ़ाता परमात्मा की तरफ बढ़ेगा। क्योंकि दान है, दया है, क्षमा है, करुणा | | हूं, गहराता हूं, घनी कर रहा हूं; या तोड़ रहा हूं, मिटा रहा हूं, नष्ट है, प्रेम है, ये भीतर समता को पैदा करवाते हैं।
कर रहा हूं। क्या कभी आपने खयाल किया कि जब आप लोभ से भरते हैं, | जैसे कोई आदमी बगीचे की तरफ जा रहा हो। अभी बगीचा तो आपके भीतर का संतुलन डगमगा जाता है। पलड़े नीचे-ऊपर बहुत दूर है, लेकिन जैसे-जैसे पास पहुंचता है, हवाएं ठंडी होने होने लगते हैं। लहरें उठ जाती हैं।
| लगती हैं। हवाओं को ठंडा जानकर वह सोचता है कि मेरे कदम
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