SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वाध्याय - यज्ञ की कीमिया ईश्वर - जप के बहुत अर्थ हैं, अलग संदर्भ में। अलग रिफरेंस का सवाल है कि कहां? स्वाध्याय के संदर्भ में ईश्वर - जप का क्या अर्थ है ? आपसे मैंने एक पहलू की बात कही, आदमी अपने अंधेरे का साक्षात्कार करे – अपनी बुराई का, अपनी बीमारी का, अपनी रुग्णता का, भीतर के पाप, अपराध, उन सबका – कहें एक शब्द में, अपने भीतर छिपे नर्क का । यह आधी बात है। अगर आदमी सिर्फ अपने भीतर छिपे नर्क का ही अनुभव करे, तो यह भी हो सकता है कि सेल्फ कंडेमनेशन में पड़ जाए, आत्मनिंदा में पड़ । यह भी हो सकता है कि इतना नर्क देखकर समझे कि जीवन व्यर्थ है, बेकार है, सब पाप है, सब नर्क है। यह खतरा है। पश्चिम में यह खतरा हो गया। मनोविश्लेषण ने स्वाध्याय की प्रक्रिया लोगों को दे दी, लेकिन ईश्वर-जप का कोई खयाल नहीं दिया। इसलिए आज पश्चिम में जीवन अर्थहीन है। लोग कहते हैं, यही सब - पाप ही पाप है - घृणा और हिंसा और ईर्ष्या है, तो जीने का अर्थ क्या है ? न कहीं कोई प्रेम है, न कहीं कोई क्षमा है; सब धोखा है। प्रेम के पीछे सेक्स दिखाई पड़ने लगा स्वाध्याय से। सब प्रेम की बातचीत फोर-प्ले हो गई। सब प्रेम की बातचीत सेक्स के लिए परसुएशन है । सब प्रेम की बातचीत के पीछे वह शरीर को भोग की आकांक्षा है। प्रेम सिर्फ फसाड है, तैयारी है, इंतजाम है। कविताएं वगैरह सब इंतजाम हैं। प्रेम की सब बातचीत सब इंतजाम हैं। आखिर अंत में वह काम, वह शरीर का शरीर के साथ भोग, वही अंत में । तो पश्चिम ने इधर पचास वर्षों में आत्म-विश्लेषण करके यह जाना कि प्रेम है ही नहीं, सिर्फ काम है। इससे खतरा हुआ। इसका मतलब हुआ कि प्रेम की कोई संभावना ही नहीं है। इसलिए भोगो काम को, और जो है. ठीक है ! इससे रूपांतरण नहीं हुआ, बल्कि आदमी का पतन हुआ। इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं, ईश्वर - जप | ईश्वर - जप का मतलब है, दूसरा पहलू भी स्मरण रखना । प्रेम के पीछे वासना है, यह हमारा तथ्य है। लेकिन वासना में से भी प्रेम का जन्म हो सकता है, यह हमारी संभावना है। ईश्वर - जप का अर्थ है, संभावना को याद रखना। आदमी के भीतर ईश्वर की संभावना है। संभावना को स्मरण रखना, तथ्य को सब मत समझ लेना। तथ्य के भीतर छिपा हुआ भी, अप्रकट भी कुछ है, विराट भी कुछ है, अर्थ भी कुछ है, अभिप्राय भी कुछ है। ईश्वर-जप का अर्थ है, स्मरण रखना कि कितना ही हो गहरा पाप, पुण्य का अभाव नहीं है। कितना ही हो गहरा अपराध, क्षमा की असंभावना नहीं है। कितना ही हो अंधकार, न दिखाई पड़ती हो प्रकाश की कोई भी किरण, तो भी प्रकाश है। ईश्वर - जप का अर्थ है, अंधकार के गहन निबिड़ भटकाव में भी प्रकाश का स्मरण । पाप के मध्य भी परमात्मा की स्मृति । अपराध | के मध्य भी मुक्त होने की संभावना के द्वार का खयाल, रिमेंबरिंग । ईश्वर - जप न हो, तो अकेला स्वाध्याय खतरनाक भी हो सकता है । होगा ही, ऐसा नहीं; हो सकता है । ईश्वर-जप आशा है। अकेला स्वाध्याय निराशा बन सकता है। ईश्वर-जप आशा है। और आशा अगर बिलकुल न हो खयाल में, तो निराशा आत्मघाती, स्युसाइडल हो जाती है। इसलिए पश्चिम में आत्महत्या बढ़ी है। विगत पचास वर्षों में जैसे-जैसे मनोविश्लेषण बढ़ा, वैसे-वैसे आत्महत्या बढ़ी है। और जैसे-जैसे आत्मविश्लेषण आदमी ने किया, वैसे-वैसे हत्या की ओर उन्मुख हुआ। क्योंकि पाया कि सिवाय नर्क के कोई स्वर्ग नहीं है। ही बस सब है, कहीं कोई स्वर्ग नहीं है । फिर जीने की क्या जरूरत है ? बीज कुरूप सिद्ध हो और वृक्ष का हमें कोई पता न हो; बीज | बेहूदा मालूम पड़े और भीतर छिपे अंकुर के सौंदर्य की हमें कोई स्मृति न हो; बीज फेंक देने जैसा मालूम पड़े और बीज में छिपे हुए अनंत फूल जो आकाश में खिल सकते हैं, सूरज की रोशनी में नाच | सकते हैं, सुवास से भर सकते हैं दिगदिगंत को, उनका हमें कोई पता न हो तो अकेला स्वाध्याय खतरनाक हो सकता है। इसलिए कृष्ण ने तत्काल, जैसे ही कहा स्वाध्याय वैसे ही कहा | ईश्वर - जप | ईश्वर-जप पुराने दिन की भाषा है। उसे समझने के लिए मैंने... ईश्वर - जप पुराने दिन की भाषा है। आज की भाषा में कहना हो, तो कहना होगा, मनुष्य की संभावनाओं का स्मरण | आदमी ईश्वर हो सकता है, है नहीं । है तो आदमी बिलकुल ही राक्षस; हो सकता है ईश्वर । है तो आदमी बिलकुल दानव; सकता है देव । तो जो है, अगर वही दिखाई पड़े, तो खतरनाक हो सकता है। जो हो सकता है, उसकी स्मृति की किरण भी अंधकार | में उतरती रहे - स्मृति की किरण। जप का अर्थ है, स्मरण। जप का क्या अर्थ होता है? एक ही बात को बार-बार दोहराना । अंधेरा है बहुत, प्रकाश कहीं दिखाई नहीं पड़ता; बार-बार भूल जाता है कि प्रकाश हो सकता है। उसे बार-बार स्मरण रखना कि 167
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy