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EC तीन सूत्र-आत्म-ज्ञान के लिए
मालूम पड़े, तो एक बार सोचना फिर से कि उसके चोर मालूम | परमात्मा को देखना कठिन हो जाता है। और जिसमें हम मधुर पड़ने में आपके भीतर का चोर तो सहयोगी नहीं हो रहा। और जब बांसरी का संगीत सनते हैं. उसमें परमात्मा को देखना सरल हो कोई आदमी बेईमान मालूम पड़े, तो सोचना भीतर से कि उसके | जाता है। और अगर दूसरे में चोर दिखेगा, तो भीतर विषमता बेईमान दिखाई पड़ने में आपके भीतर का बेईमान तो कारण नहीं आएगी। और दूसरे में अगर बजती हुई बांसुरी सुनाई पड़ेगी, तो बन रहा!
भीतर समता आएगी। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बाहर लोग बेईमान नहीं हैं और चोर | ये दो सूत्र भी एक ही सूत्र के हिस्से हैं। अगर भीतर समता लानी नहीं हैं। होंगे! उससे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन जब आपको | | हो, तो बाहर शुभ को देखना अनिवार्य है। और अगर भीतर दिखाई पड़ता है, तो जरा भीतर देखना कि आपके भीतर कोई कारण | | विषमता लानी हो, तो बाहर अशुभ को देखना अनिवार्य है। तो इस व्याख्या के लिए आधार नहीं है? और अगर हो, तो दूसरे के | बाहर अशुभ को देखना छोड़ते चले जाएं। और ध्यान रखें, इस चोर होने से इतना नुकसान नहीं है, जितना दूसरे के चोर दिखाई पड़ने | । पृथ्वी पर बुरे से बुरा आदमी भी ऐसा नहीं है, जिसके भीतर शुभ से नुकसान है। क्योंकि फिर इस जगत में आपको परमात्मा दिखाई | | की कोई किरण न हो। और यह भी ध्यान रखें, इस पृथ्वी पर भले पड़ना मुश्किल है। और दूसरा चोर होकर आपसे कुछ कीमती चीज | |से भला आदमी भी ऐसा नहीं है, जिसके भीतर कोई अशुभ न नहीं छीन सकता, लेकिन आप दूसरे में चोर देखते हैं, इससे आप | | खोजा जा सके। आप पर निर्भर है। और जब आपको एक अशुभ बहुत बड़ी कीमती चीज से वंचित रह जा सकते हैं। वह दूसरे में | | मिल जाता है किसी में, तो उसमें दूसरे शुभ पर भरोसा करना कठिन परमात्मा दिख सकता था, उससे आप वंचित रह जा सकते हैं। हो जाता है। और जब आपको किसी में एक शुभ मिल जाता है, तो
इसलिए साधक के लिए कहता हूं, आखिरी बात! साधक निरंतर | दूसरे शुभ के लिए भी द्वार खुल जाता है। इस चेष्टा में रहेगा, पहला सूत्र मैंने कहा, समता की ओर बढ़ रहा | । भीतर लानी हो समता, तो बाहर शुभ का दर्शन करना शुरू करें। हूं या नहीं। दूसरा सूत्र, साधक निरंतर इस चेष्टा में रहेगा कि दूसरे जितना शुभ का दर्शन कर सकें बाहर, करें। उतनी समता घनी होगी। के भीतर कोई ऐसी शुभ चीज को देख ले, जिससे परमात्मा का __ भीतर समता, बाहर शुभ। और आप पाएंगे कि इन दोनों के बीच स्मरण आ सके। अगर दूसरे के भीतर अशुभ को देखा, तो शैतान | | में प्रभु की किरण धीरे-धीरे उतरने लगी। और वह दिन भी दूर नहीं का स्मरण आ सकता है, परमात्मा का स्मरण नहीं आ सकता। | होगा कि जिस दिन समता और शुभ की पूर्ण स्थिति में प्रभु से दूसरे के भीतर मैं कोई चीज देख लूं, जिससे परमात्मा का स्मरण | | तदरूपता हो जाती है। आ सके।
अब हम पांच मिनट तदरूपता में हो जाएं प्रभु के साथ। इसको तिब्बत में एक फकीर हुआ, मिलरेपा। वह कहा करता था कि | | कीर्तन ही न समझें, तदरूपता समझें। परमात्मा ही नाचता है, ऐसा अधार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं, जिससे अगर हम कहें कि ही समझें। बैठे रहें, ताली बजाएं, गीत गाएं। वहीं बैठे-बैठे हमारे गांव में फला-फलां आदमी बहुत अच्छी बांसुरी बजाता है, | | आनंदमग्न हो जाएं। तो वह फौरन कहेगा कि छोड़ो भी; क्या खाक बांसुरी बजाएगा! वह निपट चोर रखा है। और धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं, मिलस्पा कहता था कि अगर हम उससे कहें कि हमारे गांव में फला
आदमी चोर है, तो वह कहेगा, मान नहीं सकता; वह इतनी अच्छी बांसुरी बजाता है कि चोरी कैसे करता होगा!
एक ही आदमी के बाबत, जो चोरी करता है और बांसुरी बजाता है, अधार्मिक आदमी चोरी को चुन लेता है, बांसुरी को काट देता है; धार्मिक आदमी बांसुरी को चुन लेता है, चोरी को काट देता है। इससे चोर में कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन देखने वाले व्याख्याकार में बुनियादी फर्क पड़ता है। क्योंकि जिसमें हम चोर देखते हैं, उसमें
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