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0 गीता दर्शन भाग-20
न था। और महात्मा को पहचानते न हों आप, तो महात्मा और गया हो, तो कर्म छोड़ने से भी कुछ होगा नहीं। गैर-महात्मा में कोई फर्क होता है? पहचान का ही फर्क होता है। अर्जुन की आंख में देखकर उन्होंने फिर बात खड़ी की होगी। ऐसा नहीं कि महात्मा और गैर-महात्मा में फर्क नहीं होता, लेकिन और अर्जुन से कहा होगा, ऐसा मत सोच कि मैं कह रहा हूं कि तू वह भीतरी फर्क है, वह आपकी पकड़ में नहीं आता। आप तो छोड़कर चला जा। पहले त निष्काम कर्म साध। यदि निष्काम कर्म पहचान से ही पकड़ते हैं। अगर बगल में एक महात्मा बैठा हो और | सध जाए, तो कर्मत्याग भी कर सकता है। आप पहचानते न हों, तो बिलकुल नहीं पता चलेगा कि महात्मा लेकिन बड़े मजे की बात यह है कि अगर निष्काम कर्म सध बैठा है। पहचानते हों, तो पता चलेगा कि महात्मा बैठा है। | जाए, तो कर्मत्याग करना, न करना बराबर है। कोई भेद नहीं है। पहचानते हों कि चोर है, तो पता चलेगा कि चोर बैठा है। बेईमान फिर वह व्यक्ति की अंतर्मुखता या बहिर्मुखता पर निर्भर करेगा। है, तो बेईमान बैठा है। भीतर जो है, वह तो बहुत गहरे में है, उसका | अगर निष्काम कर्म सध जाए, तो बहिर्मुखी व्यक्ति कर्म को करता आपको पता नहीं चलता। उसका तो खुद को भी पता चल जाए, | चला जाएगा, अंतर्मुखी व्यक्ति कर्म को अचानक पाएगा कि वे बंद तो काफी है। दूसरे को पता चलना तो बहुत मुश्किल है। | हो गए हैं। लेकिन वासना से मुक्ति तो सधनी ही चाहिए, निष्कामता
वहां कोई पहचानता नहीं था महात्मा को। गांव के थोड़े-से लोग तो सधनी ही चाहिए। वह तो अनिवार्य शर्त है। उससे कोई बचाव पहचानते थे। वहां भारी भीड़; धक्का-मुक्की हो गई। किसी ने पैर नहीं है। इसलिए कृष्ण ने पुनः अर्जुन को याद दिला दी। पर जूता रख दिया महात्मा के। महात्मा को गुस्सा आ गया। कृष्ण पूरे समय अर्जुन को पढ़ते चलते हैं। और गुरु वही है, जो उचककर उसकी गर्दन पकड़ ली और कहा, गर्दन दबा दूंगा! | शिष्य को पढ़ ले। शिष्य तो गुरु को कैसे पढ़ेगा! वह तो बहुत जानता नहीं मैं कौन हूं!
| मुश्किल है, असंभव है। अगर शिष्य गुरु को पढ़ सके, तो वह खुद तब अचानक खयाल आया कि तीस साल विलीन हो गए ही गुरु हो गया। उसके लिए अब किसी गुरु की जरूरत नहीं है। एकदम। तीस साल पहले का आदमी वापस खडा हो गया। तीस गरु वही है, जो शिष्य को पढ ले खली किताब की तरह. उसके साल पहले यही आदमी था वह, कि कोई पैर पर जूता रख देता, तो एक-एक अध्याय को उसके जीवन के; उसके मन की एक-एक गर्दन पकड़ लेता और कहता, जान से मार डालूंगा। जानता नहीं मैं | | पर्त को झांक ले। गुरु वह नहीं है कि शिष्य जो कहे, वह उसे बता' कौन हूं! वे तीस साल बीच के एकदम तिरोहित हो गए, जैसे थे ही दे। गुरु वह है, जो वही बताए, जो शिष्य के लिए जरूरी है। गुरु नहीं। जैसे फिल्म में सिनेमा के पर्दे पर कैलेंडर एकदम से उड़ता है। वह नहीं है, जो शिष्य के लिए सिर्फ सिद्धांत जुटा दे। गुरु वह है, न; तारीख एकदम बदलती चली जाती है। तीन घंटे में कई साल जो शिष्य के लिए ट्रांसफार्मेशन, रूपांतरण, क्रांति का मार्ग बिताने पड़ते हैं। एक सेकेंड में तीस साल का कैलेंडर एकदम हवा | | व्यवस्थित कर दे। में उड़ गया! वापस वह आदमी वहीं खड़ा हो गया, जिस दिन | __ अर्जुन तो यही चाहता है कि कृष्ण कह दें कि अर्जुन, छोड़ दे, हिमालय गया था—अहंकार अपनी जगह, गर्दन पर हाथ कसे हुए! | | तो अर्जुन प्रफुल्लित हो जाए। और सारी दुनिया में डंके से कह दे
लेकिन फिर उसने झुककर उस आदमी के पैर पड़ लिए, जिसकी | | कि कोई मैंने छोड़ा, ऐसा मत कहना। असल में अर्जुन चाहता है गर्दन पकड़ी थी। वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, यह कि कृष्ण की गवाही मिल जाए, तो वह सारी दुनिया को कह सके क्या करते हो! उस संन्यासी ने कहा कि आपने मुझ पर बड़ी कृपा | कि मैं कोई कायर नहीं हूं। डर तो उसे यही है गहरे में, बहुत गहरे की जो मेरे पैर पर जूता रख दिया। हिमालय तीस साल तक जो मुझे में। क्षत्रिय है वह। एक ही डर है उसे कि कोई कायर न कह दे। न बता पाया, वह आपके जूते ने मुझे बता दिया। तीस साल | इसलिए वह फिलासफी की बातें कर रहा है। वह यह कह रहा है हिमालय में मुझे पता न चला कि अहंकार है, वह एक आदमी की | | | कि मुझे कोई दार्शनिक सिद्धांत मिल जाए, जिसकी आड़ में मैं पीठ जरा-सी चोट से पता चल गया। आपकी बड़ी अनुकंपा है। बड़ी | दिखा सकूँ और मैं दुनिया से कह सकूँ कि मैं कोई कायर नहीं हूं। कृपा है।
| मैंने कर्म-त्याग कर दिया है। और अगर तुम कहते हो कि मैं गलत कृष्ण कहते हैं, कर्म से छोड़कर भाग जाना तो कठिन नहीं है, | हूं, तो पूछो कृष्ण से। कृष्ण की गवाही से छोड़ा है। ये गवाह हैं। लेकिन अगर आकांक्षा न गई हो और अगर निष्काम कर्म न सध लेकिन उसे पता नहीं कि वह जिस आदमी को गवाह बना रहा
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