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गीता दर्शन भाग-2
विश्वास ? फिर कठिन है। कठिन इसलिए है कि कैसे का सवाल ही अविश्वास में और गैर-भरोसे में ले जाता है।
अर्जुन संदिग्ध हो गया। यह कैसे हो सकता है? एब्सर्ड, बिलकुल व्यर्थ की बात है; असंगत। संगति भी नहीं, तर्क भी नहीं । कहते हैं, सूर्य को कही थी मैंने यही बात
देखें, कैसा मजा है! कृष्ण चाहते हैं कि अर्जुन को भरोसा आ जाए, इसलिए वे कहते हैं, सूर्य को भी मैंने कहा था, तुझसे भी वही कहता हूं। कृष्ण चाहते हैं जिससे भरोसा आ जाए; अर्जुन के लिए वही गैर - भरोसे का कारण हो जाता है।
पूछता है, सूर्य से, आपने? आप अभी पैदा हुए, सूर्य कब का पैदा हुआ ! जो बात कृष्ण ने कही है, अर्जुन उसके संबंध में सवाल नहीं उठा रहा। वह सत्य क्या है, जो सूर्य से कहा था आपने, वह यह नहीं पूछता। कंटेंट के बाबत उसका सवाल नहीं है। उसका सवाल उस व्यवस्था और कंटेनर के बाबत है, जो कृष्ण ने मौजूद किया। वह कहता है कि कैसे मानूं ?
यह ध्यान देने की बात है कि आज तक जगत में सत्य को जानने वाले लोगों ने न जानने वाले लोगों के मन में भरोसे के लिए जितने उपाय किए हैं, न जानने वाले भी कमजोर नहीं हैं, उन्होंने उन सब उपायों को भरोसा न करने का उपाय बना लिया।
जानने वालों ने जितने भी उपाय किए हैं कि न जानने वालों और उनके बीच में भरोसे का एक सेतु, ए ब्रिज आफ ट्रस्ट पैदा हो जाए कि जिसके आधार पर सत्य कहा जा सके; लेकिन न जानने वाले भी अपने न जानने की जिद्द में उस सेतु को टिकने ही नहीं देते। उस सेतु से जो आएगा, उसकी तो बात ही नहीं है। पहले तो वे उस सेतु पर ही संदेह खड़ा करते हैं कि यह सेतु हो कैसे सकता है ?
कृष्ण तो कहते हैं, मैं सखा, मित्र, प्रिय ! अर्जुन जो सवाल उठाता है, वह बहुत प्रेमपूर्ण नहीं है। क्योंकि प्रेम भरोसा है। प्रेम भरोसा है, निष्प्रश्न भरोसा । जहां सवाल है भरोसे पर कि क्यों? वहां प्रेम नहीं है। वहां प्रेम का अभाव है।
कभी आपने खयाल किया है कि जब भी जीवन में प्रेम की घड़ी होती है, तब आप क्यों, कैसे, क्या – सब भूल जाते हैं। प्रेम एकदम भरोसा ले आता है। और अगर प्रेम भरोसा न ला पाए, , तो फिर प्रेम कुछ भी नहीं ला सकता। और अगर प्रेम भरोसा न ला पाए, तो प्रेम है ही नहीं।
अर्जुन पूछता है, मानने योग्य नहीं लगती यह बात ! यह भी समझ लेने जैसा जरूरी है कि कृष्ण ने क्या कहा था !
सुबह मैंने आपको कहा था, कृष्ण जब कह रहे हैं कि यही मैंने कहा था, तो यह तो कृष्ण भी जानते हैं कि यह शरीर तो अभी पैदा | हुआ। यह अर्जुन ही पूछे, तब कृष्ण जानेंगे, ऐसा नहीं है। यह कृष्ण भी जानते हैं कि यह शरीर तो अभी पैदा हुआ है। और अगर इतना कृष्ण नहीं जानते, तो बाकी और कुछ पूछना उनसे व्यर्थ है। एक बार ऐसा हुआ। रामकृष्ण का चित्र किसी ने उतारा। फिर फोटोग्राफर चित्र को लेकर आया, तो रामकृष्ण उस चित्र के पैर पड़ने लगे। पास-पड़ोस बैठे शिष्यों ने कहा, क्या करते हैं परमहंस | देव ? लोग पागल कहेंगे! अपने ही चित्र के, और पैर पड़ते हैं?
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रामकृष्ण खूब हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम क्या सोचते हो कि मुझे | इतना भी पता नहीं कि यह मेरा ही चित्र है ? और अगर इतना भी मुझे पता नहीं है, तो लोग पागल कहेंगे, तो ठीक ही कहेंगे। अगर इतना भी मुझे पता नहीं, तो लोग जो कहेंगे, ठीक ही कहेंगे ।
बहुत बार जिन्होंने जाना है, उन्होंने न जानने वालों को तो सलाह दी ही है; जो नहीं जानते हैं, वे भी जानने वालों को सलाह देने पहुंच जाते हैं। इस बात को भी भूलकर कि जब जानने वालों को भी | आपकी सलाह की जरूरत पड़ती है, तो फिर अब उसकी सलाह की आपको कोई जरूरत नहीं रह गई ।
रामकृष्ण ने कहा कि यह तो मुझे भी पता है कि तस्वीर मेरी है। | और यह कहकर फिर भी पैर पड़े और खड़े होकर तस्वीर को लेकर नाचने लगे। एक शिष्य ने कहा, आप क्या कर रहे हैं ? रामकृष्ण ने | कहा, कुछ समझने की कोशिश करो। यह चित्र मेरा ही है, इतना | ही नहीं, यह चित्र साथ किसी और चीज का भी है। उन्होंने कहा, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती, आपका ही चित्र है। रामकृष्ण ने कहा, यह मेरे शरीर की आकृति है, सो तो ठीक; लेकिन जब यह चित्र | लिया गया, तब मैं गहरी समाधि में था। यह समाधि का भी चित्र है, मेरा ही नहीं। मैं तो सिर्फ रूप हूं। और मेरी जगह और भी रूप | हो सकता था। लेकिन भीतर जो घटना घट रही थी, उसका भी चित्र है। मैं उसी को नमस्कार कर रहा हूं।
लेकिन वह भीतर की घटना तो हमारी बाहर की आंखों को दिखाई नहीं पड़ती। अर्जुन को भी न दिखाई पड़ी, तो आश्चर्य नहीं है।
अर्जुन ठीक हमारे जैसा सोचने वाला आदमी है, ठीक तर्क से, गणित से हिसाब से । वह कहता है, आप? स्वभावतः, जो सामने | तस्वीर दिखाई पड़ रही है कृष्ण की, वह सोचता है, यही आदमी | कहता है ? तो इसकी तो जन्म तारीख पता है। सूर्य की तो | जन्म तारीख कुछ पता नहीं है । और यह आदमी जिस दिन पैदा
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